Friday, June 1, 2007

बस्तर का बलात्कार...
विकल्प ब्यौहार
अब मन बहुत दुखी है। राष्ट्रीय महिला संगठन की एक रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद करते हाथ- पैर कांपने लगे थे। क्या एक इनसान इस हद तक गिर सकता है? हमारी आदिवासी मां-बहनों के साथ ऐसा सुलूक ! वह भी हमारी चुनी सरकार के पूरे संरक्षण में। नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए। यह तो घोर पाप है। रावण के राज्य में भी महिलाओं के साथ ऐसा नहीं होता होगा।
एक 10 साल की बच्ची के साथ नगा बटालियन के जवान एक सप्ताह तक सामूहिक बलात्कार करते रहे और उसकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई गई। उसके टुकडे-टुकडे कर फेंक दिया, जालिमों ने और हम... ऐसी चुप्पी आखिर कब तक ? कोई जल्द ही आपके और मेरे घर दस्तक देने आता होगा।
दंतेवाड़ा जिले में बड़ी संख्या में आदिवासी महिलाओं जो वास्तव में छत्तीसगढ़ महतारी हैं, के साथ जो सुलूक किया जा रहा है, उसका परिणाम आने वाले समय में ठीक नहीं होगा। नक्सलियों से लड़ने के लिए स्थानीय पुलिस की नपुंसकता के कारण ही राज्य सरकार को नगालैंड और मिजोरम से जवानों को 'आयात' करना पड़ा है।
पहले तो सिर्फ नक्सली ही आदिवासियों का पेट फाड़ा करते थे अब ये नगा के जवान बुला लिए गए हैं, ताकि वे वहां की गर्भवती महिलाओं का पेट चीर कर भ्रूण निकाल सके। इससे सरकार को दो-दो फायदे जो हैं, एक यह कि आगे फिर कोई नक्सली बनने वाला नहीं बचेगा और दूसरा यह कि कोई बिरसा- मुंडा पैदा नहीं होगा।
रायपुर में ही मिजोरम के जवानों ने अपनी औकात दिखा दी। यह समाचार दबी कलम छप ही गया कि किस तरह मिजो जवानों ने अपने एक दिन के माना कैंप में शराब और लड़कियों की मांग की थी। कुछ स्थानीय महिलाओं ने इसकी शिकायत वहीं के अधिकारियों से की थी। कुछ समय के लिए राजधानी के पास ही मिजो जवानों का आतंक छा गया था। इतना ही नहीं उन जवानों ने माना के कुछ दुकानदारों से फोकट में खाने का सामान भी मांगा था। यह था प्रदेश में मिजो जवानों का पहला कदम।
अब हमारी सरकार का जवाबी कदम पढिए। इसकी शिकायत होने पर अधिकारियों ने कहा कि कल ही उन्हें बस्तर रवाना कर दिया जाएगा। वाह री मेरी सरकार!! मान गए। अब मिजो जवानों को अपनी वासना की पूर्ति के लिए रायपुर की लड़कियों को मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब तो उन्हें बस्तर की दर्जनों आदिवासी लड़कियां मिल जाएंगी, वह भी बिना किसी विरोध के। उनके लिए शिविरों में पहले से ही पूरी व्यवस्था जो कर ली है आपने।
हमारी बहनों को छोड़ दो सरकार!! रायपुर के किसी बड़े घराने में पैदा नहीं होने की इतनी बड़ी सजा मत दो उन्हें।
यह बात तो पता थी कि वहां कुछ लड़कियां भी विशेष पुलिस अधिकारी बनी हैं। अब तक जो जानकारी मिलती रही उसके मुताबिक वही लड़कियां एसपीओ बन रहीं हैं जो नक्सलियों के हाथों अपने परिजनों को खो चुकी हैं। पहले यह सुनकर बड़ा गर्व होता था कि चलो छत्तीसगढ़ की हमारी बेटियां इतनी बहादुर तो हैं, कि अपने दुश्मनों के खिलाफ बंदूक भी उठा सकती हैं। लेकिन यदि रिपोर्ट की मानें तो यह सारी बातें कोरी बकवास ही निकलीं।
जिन परिस्थितियों में एक 18 साल से कम उम्र की लड़की एसपीओ बनी उसकी कहानी बताने की जरूरत नहीं। लेकिन एसपीओ बनी लड़कियों का क्या हाल कर रखा है, सोच कर शरीर कांप जाता है।
दंतेवाड़ा जिला पूरी तरह से नक्सल प्रभावित है और वहां थानों में यदा कदा नक्सलियों के हमले होते रहते हैं। राज्य पुलिस व सी.आर.पी.एफ. के जवान हमले के समय तो थाने में घुस जाते हैं और अपने हाथ में बंदूक लिए ये बच्चियां व बच्चे एस.पी.ओ. का बैज लगाए उनसे मोर्चा लेते हैं। यदि किस्मत से कोई नक्सली मार दिया जाता है, चाहे गश्त में भी, जहां यही स्थानीय एस.पी.ओ. सामने रहते हैं, तो फिर इनके जारी समाचार होते हैं- फलां आई.जी के निर्देशन में, एस.पी. की अगुवाई में हमारे जांबाज जावानों ने एक नक्सली को मार गिराया। फलां-फलां समान जब्त किया गया, इतने राउंड गोली चली और जवानों की लंबी-चौड़ी तारीफ के बाद अंत में एक लाइन भी जोड़ दी जाती है कि, इस मुठभेड़ में एक एसपीओ भी शहीद हो गया, जिसे सलामी दी गई।
एर्राबोर की घटना की जांच अब तक हो रही है। उसी का उदाहरण लें तो इस घटना ने यह जग जाहिर कर दिया कि पुलिस नाकाम है, और सफाई देने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकती। सरकार ने शेरों से लड़ने बिल्लियों का सहारा लिया जो बेकार साबित हुए, तभी तो नगा और मिजो जवान बुलाए गए हैं। दो चक्की के बीच फंसी हमारी बस्तर की मां-बहनों की चिंता किसी को नहीं है।
चक्की चल रही है और खून की धारा बह रही है, और हम यह देख रहे हैं कि इस खून की उम्र कितनी है। आंख में पट्टी बांधकर नेत्रहीनों का दर्द महसूस करने वाले हमारे मुखिया क्या कभी बस्तर जाकर उन निरीह आदिवासी महिलाओं का दर्द उन्हीं की तरह महसूस कर पाएंगे।
सरकार का दावा है कि शिविरों में सब कुछ बहुत बढिय़ा हो रहा है। तो भाई जंगल में मोर नाचा किसने देखा? हमारे कुछ साथी पत्रकार बताते हैं कि मीडिया को साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाते हुए चुप कर दिया गया है। एक भी समाचार सलवा जुड़ूम के खिलाफ छपी तो फिर समझ लीजिए कि आपकी 'पत्रकारिता' तो गई तेल लेने। या तो आपको इलाका छोड़ना पड़ेगा या तो फिर कलम। कुछ दिलेर कलम नहीं छोड़ते तो फिर उनके एनकाउंटर की पूरी आशंका बनी रहती है।
यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि पुलिस के अत्याचार और सलवा-जुड़ूम के खिलाफ लिखने वालों को नक्सलियों का साथी घोषित कर देना कोई अच्छी बात नहीं है। छत्तीसगढ़ के कुछ अखबारों ने पुलिसिया अत्याचार के बीच चक्की के दूसरे पाटे को भी जनता के सामने लाया है। नक्सलियों द्वारा की गई हत्याएं और उनका आदिवासी विरोध, नक्सलियों की बर्बरता भी उतनी ही संजीदगी के साथ छापी जाती हैं। लेकिन अब करें क्या गलत कामों में हमें नक्सलियों का पलड़ा कुछ हल्का ही मिलता रहा है।
पुलिस की शहर में क्या इज़्जत है, वह तो सभी देखते ही रहते हैं। हर वह बच्चा जो होश संभालने लगता है, यह सुनने लग जाता है कि रुपए के लिए चालान किए जाते हैं और रुपए के लिए पुलिस अपने एरिया की दुकानों से हफ्ता वसूलती है।
राष्ट्रीय महिला संगठनों की रिपोर्ट में एक और चौकाने वाली बात सामने आई कि वहां के शिविरों में कुछ ऐसी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं जो जबरिया वहां रखी गईं हैं। ये बच्चों को पढ़ाती हैं। शिक्षिका हैं। डरी-सहमी सी शिक्षिकाएं जिनका बुझा चेहरा और डर से कांपते हाथ बस्तर की नई पीढ़ी गढ़ रहे हैं। शिविरों में विधवाओं की एक बड़ी संख्या है, जिनकी सुरक्षा करने वाला वहां कोई नहीं। जो सुरक्ष करने वाले हैं उनके बारे में खबर मिलती है कि वे उनकी ही इज़्जत से खेल रहे हैं। उन्हें घर नहीं जाने दिया जाता।
अब सरकार का एक बेहतरीन तर्क पढिए- 'नक्सलियों से ग्रामीणों की सुरक्शा के लिए उन्हें मुख्य मार्गों के किनारे शिविर बनाकर रखा जा रहा है।' उधर मुट्ठीभर नक्सली और इधर बटालियन पर बटालियन फिर् भी सुरक्षा के लिए एक जगह जानवरों की तरह ठूंस देना हास्यास्पद है। गांव खाली क्यों कराते हो, गांव को आबाद रखो और लड़ो नक्सलियों से! कल रायपुर में नक्सलियों की वारदातें शुरू हो जाएंगी तो क्या यहां से दूर एक कैंप बनाकर सबको रख दोगे?
अरे सरकार! कुछ तो रहम करो। कम से कम हमारी मां-बहनों को तो छोड़ दो। आप नक्सलियों से लड़ो, हमारा पूरा समर्थन आपको है, लेकिन बस्तर का बलात्कार तो मत करो। ऐसे में हमारा साथ नहीं मिलने वाला। नगा और मिजो जवानों को नियंत्रण में रखो। नक्सलियों के खिलाफ लड़ने के लिए एक सकारातमक माहौल बनाओ। वहां की विषमताओं को दूर करो। वहां की मां-बहनों की इज़्जत करो। अपनी पुलिस को विश्वसनीय तो बनाओ, फिर देखो कैसे खत्म होता है नक्सलवाद। इसके लिए किसी बाहरी पुलिस अधिकारी की जरूरत नहीं। अपनों में भी बहुत दम है, यदि उन्हें तैयार कर सको तो। ( With thanks from www.itwariakhbar.com )

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