Tuesday, June 5, 2007

नक्सली हिंसा के आगे घुटने टेकती सरकार

राजीव कुमार
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असम में बिहारी मजदूरों की नृशंस हत्या से देश उबर भी नहीं पाया था कि झारखंड में नक्सलियों ने सांसद सुनील महतो की हत्या कर यह दिखा दिया कि उनकी पहुंच कहां तक है और वे किस स्तर तक अपनें मंसूबे को पूरा कर सकते हैं। अपनें वारदातों को आगे बढ़ाते हुए नक्सलियों ने 15 मार्च 2007 गुरूवार की रात्रि को कभी न खत्म होनें वाली कालिमा के रूप में बदल कर रख दिया। नक्सली आंदोलन के इतिहास में इसके पहले किसी एक घटना में इतनें अधिक पुलिसकर्मी नहीं मारे गए थे। नक्सली आतंक के आगे केंद्र सरकार एकदम असहाय नजर आती है। नक्सलियों के बढ़ते हौसले व बेखौफ होनें का आलम यह है उन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र में दंतेवाड़ा जिले के रानीबोदली में पचास से ज्यादा पुलिसकर्मियों को अत्यंत क्रूरता व निर्ममता से मौत की नींद सुला दिया। करीब पिछले दो सालों से नक्सली हिंसा ने छत्तीसगढ़ में ज्यादा कहर बरपाया है। नक्सली आतंक की इस आग में पूरा छत्तीसगढ़ जलता नजर आ रहा है। छत्तीसगढ़ में पिछले दो सालों में 1000 से ज्यादा लोग नक्सली आतंक के शिकार हुए हैं। पिछले चार दशकों में नक्सली आंदोलन 13 से अधिक राज्यों में फैल चुका है। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने 26 साल पूर्व बस्तर इलाके में सेंध लगाने की शुरूआत की थी और अब राज्य के 16 जिलों में से आठ में इसका प्रभाव है। केन्द्र सरकार नें भी नक्सली हिंसा को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया है। देश के करीब 13 राज्य नक्सली आतंक से प्रभावित है। जहां आए दिन नक्सली कहर बरपा करता है, 160 जिलों में नक्सलियों की पैठ है और 55 में इनकी समानांतर सरकार है। देश के 25 से तीस प्रतिशत हिस्सों में इन्हीं का कानून चलता है। ये आंकड़ें बेहद खौफनाक हैं। लेकिन इससे भी ज्यादा खौफनाक है केन्द्र सरकार की नक्सलियों के सामने ढुलमुल रवैया, विवशता, लाचारी और हार। जो दशकों से नक्सलवाद के तांडव-खूनी खेल को असहाय होकर उन्हें फलता-फूलता देखती नजर आ रही है।
अब इस स्थिति इतनी भयावह और बेकाबू हो गई है कि बंगाल के छोटे से इलाके नक्सलवाड़ी में किसानों को न्याय दिलाने की भावना से शुरू किया यह आंदोलन आज आतंकवाद के चौमुहानें पर बड़े द्रुत गति से बढ़ता जा रहा है। इसी का दुष्परिणाम है कि आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र,झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में मौत का खूनी तांडव बदस्तुर जारी है। नक्सलवाद का यह चेहरा आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक और खौफनाक नजर आ रहा है। क्योंकि इसमें किसी बाहरी का नहीं बल्कि अपना ही अक्श प्रतिबिम्बित हो रहा है।
बहरहाल कुछ भी हो लेकिन नक्सली अपनें खिलाफ चलाए जा रहे सलवाजुडूम आंदोलन से बेहद आक्रोशित हैं। इस आंदोलन की शुरूआत जगदलपुर के रानीबोदली इलाके से हुई थी। यहां नक्सली हमले की आशंका को भांपते हुए साल भर पहले ही रानीबोदली और करकेली गांव में पुलिस ने अस्थाई कैंप बनाए थे। पर सालों से कोई हमला न देख पुलिस बेहद लापरवाह हो गई थी। जहां पुलिस सो रहे थे वहां उनकी सुरक्षा के लिए एक भी संतरी नहीं था। हकीकत यह है कि उस वक्त पुलिसकर्मी शराब के नशे में बेसुध थे और वे चाहकर भी नक्सलियों का मुकाबला नहीं कर सके। और तो और छत्तीसगढ़ की पुलिस द्वारा की जा रही गोरिल्ला कारवाई से नक्सलियों में बहुत बड़ा भय व्याप्त था और उनके हौसलें पस्त हो रहे थे।
ज्ञात रहे कि आंध्रप्रदेश के बाद छत्तीसगढ़ ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां पूर्णरूपेण सुनियोजित ढंग से पुलिसबल को गुरिल्ला युध्द की टेनिंग दे कर नक्सलियों के गढ़ को जमींदोह किया जा रहा है। राज्य सरकार द्वारा दिये जा रहे गुरिल्ला टे्रनिंग से पुलिसबल के अंदर जो साहस देखने को मिला वे आश्चर्य चकित करने वाले थे। इससे पूर्व आंध्रप्रदेश में भी पुलिस को गुरिल्ला प्रशिक्षण की सुविधा दी गई थी, जिससे वहां की पुलिस ने नक्सलियों का खात्मा करने में काफी हद तक सफलता पाई है। आंध्रा में नक्सलियों के उपर पुलिस का दबाव इस कदर हावी था कि उन्हें मजबूर होकर प्रदेश छोड़कर भागना पड़ा। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ के नक्सलियों के मन में यह डर बैठ गया था कि अगर गोरिल्ला युध्द यहां भी जारी रहता है तो हमारे पांव यहां से भी उखड़ने में समय नहीं लगेगा। इसलिए ये नक्सली जो हिंसा कर रहे हैं वे बड़ी निराशा और हताशा में कर रहे हैं। इस हमले के पीछे नक्सलियों की मंशा यह थी कि वे इससे अपने खिलाफ चल रही पुलिसिया कार्रवाई को रूकवाने में सफल होंगे और सरकार को बातचीत के लिए मजबूर कर देंगे।
इस बात की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश के नक्सली आंदोलन को आतंकवादियों से हथियार और पैसे से मदद मिल रही है, क्योंकि उनके मदद के बगैर नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियार नहीं आ सकते। बिडम्बना यह है कि हमेशा से आतंकवाद का पोषक रहा पाकिस्तान आज आतंकवाद को प्राणघातक मानता है। स्वयं मुशर्रफ ने भी कहा है कि आतंकवादियों को खदेड़ना पाकिस्तान के हित में होगा। लेकिन यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि अप्रैल, 2005 में भारत के संसद में केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल नक्सलियों के के बारे में बयान देते हैं कि-''हम वनवासी क्षेत्रों और जंगलों से आने वाले लड़के-लड़कियों से किस प्रकार व्यवहार करें? उनके पास रोजगार नहीं हैं। खाने को भरपेट भोजन नहीं हैं। अगर वे आवेश में आकर हथियार उठा लेते हैं तो इसमें हमारी सरकार क्या कर सकती है?'' इसका तात्पर्य यही है कि सरकार नक्सली हिंसा के कारण को जानती है, लेकिन कोई हल नहीं निकाल सकती।
हमारे देश में सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर भी जमकर राजनीति की जाती है। वोटबैंक की राजनीति के कारण पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्रप्रदेश की स्पेशल यूनिट को बंद कर दिया गया। इससे पूर्व यह घटिया राजनीति एनटी रामाराव द्वारा 1982 में की गई थी, जब उन्होंने नक्सलियों को वास्तविक महान देशभक्त कहा था। इसी रास्ते को अख्तियार करते हुए कांग्रेस के मुख्यमंत्री एम चेन्ना रेड्डी भी 1989 में नक्सलियों को देशभक्त घोषित किया था। एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायुडू ने नक्सलियों के खिलाफ आक्रामक रवैया अपनाया था तो दूसी तरफ राजशेखर रेड्डी ने नक्सलियों को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ये हमारे देश का महादुर्भाग्य नहीं तो और क्या है?
लेकिन हकीकत में नासूर बन चुकी नक्सली समस्या से निपटने के लिए आज एक ईमानदार, पारदर्शी, जनता के प्रति समर्पित और लोकतांत्रिक रणनीति चाहिए। और ये काम राजनीतिक दल अपनें अंदर तीव्र इच्छाशक्ति उत्पन्न कर बखूबी कर सकते हैं। क्योंकि नक्सली हमेशा भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाते रहते हैं। आज ये नक्सली देशी तमंचों के भरोसे अपनी जंग नहीं लड़ रहे हैं बल्कि उनके पास मौजूद आधुनिक हथियारों के जखीरे में एके- 47, राकेट लांचर, लैंड माइंस, ग्रेनेड आदि हैं। इसके अलावा उनके पास करीब पचीस हजार प्रशिक्षित सेना है।
आज परिस्थितियां अलग हैं। नक्सलियों ने अपनी रणनीति में भारी बदलाव किया है। 1990 से नक्सलियों ने अपने संगठन को अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित करना शुरू किया था। नक्सली आंदोलन में 2004 में बड़ी तब्दीली तब आई जब दो बड़े संगठन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप का आपस में विलय हो गया और एक नए संगठन सीपीआई माओवादी का गठन हुआ और इससे इनकी ताकत में दोगुना इजाफा हो गया। इस विलय के बाद नक्सली वारदातों में भारी वृध्दि दर्ज की गई।
अगर हम इन प्रमुख नक्सली घटनाओं को देखें तो स्थिति की भयावहता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है: 20 नवं. 2003 को उत्तर प्रदेश में बारूदी सुरंग की चपेट में आने से एक ट्रक में बैठे 18 पुलिसकर्मी मारे गए। 4 सितंबर 2005 को छत्तीसगढ़ में एक बारूदी सुरंग बिस्फोट में 23 की मौत। 12 सितंबर 2005 को झारखंड के एक गांव में 15 लोगों की मौत। 8 अक्टूबर 2005 को झारखंड में 25 पुलिसकर्मी मारे गए। 28 फरवरी 2006 को छत्तीसगढ़ के कोटा क्षेत्र दरबागुड़ा में बारूदी सुरंग विस्फोट में 29 ग्रामीणों की मौत। 17 जुलाई 2006 को छत्तीसगढ़ के एर्राबोर राहत शिविर पर हमला, 35 की हत्या। 4 मार्च 2007 को जमशेदपुर के सांसद सुनील महतो की निर्ममता पूर्वक हत्या। 15 मार्च 2007 को पुलिस बेस कैंप पर हमला कर 55 पुलिसकर्मियों की हत्या। पूरे वर्ष 2006 में कुल 700 नक्सली वारदातें हुई और 600 मौतें।
आज केन्द्र सरकार आए दिन हो रहे नक्सली वारदातों को राज्य की समस्या बताकर पल्ला नहीं झाड़ सकती। सरकार नरम रवैया अपनाकर नक्सलियों के मनोबल को और बढ़ा रही है। एक विचार के रूप में उभरा नक्सलवाद आतंकवाद का ही एक प्रतिरूप है। यह देश की शांति, एकता और अखंडता के लिए बहुत खतरानाक साबित होगा। इसकी वकालत करना यानी एक और विभाजन को न्योता देना है। जहानाबाद जेल कांड जैसे बड़े वारदात को अंजाम देनें से पूर्व नक्सलियों ने जनमत को अपने पक्ष में कर लिया था। पिछले अनुभव यह बताते हैं कि नक्सलियों का मुकाबला करने से पूर्व उनके विरूध्द जनमत तैयार करने की रणनीति कारगर साबित हो सकती है। राज्य सरकारों को चाहिए कि वे नक्सलियों के लिए हथियार उठाने वाले नौजवानों के रोजगार का ध्यान रखें और उनके साथ हो रहे अन्याय को दूर कर सकें तो इस समस्या को जड़ से मिटाने में काफी हद तक सफलता मिल सकती है। केवल सुरक्षाबलों के सहारे इनसे निपटना मुश्किल ही नहीं असंभव है। नक्सलवाद को एक राष्ट्रीय समस्या बता राज्याें को केन्द्र से अगुवाई करने के बजाय उन्हें विकास, जनमत और चुस्त-दुरूस्त पुलिस व्यवस्था बनाना चाहिए। नहीं तो आज नक्सलियों का आतंक 92000 किलोमीटर क्षेत्र में है। अगर इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब यह पूरे भारत को अपनी चपेट में ले लेगा।
आज जरूरत है कि नक्सलवाद से पीड़ित राज्यों को उससे निपटने लिए केन्द्र सरकार विशेष फोर्स की सुविधा उन्हें तुरंत दे। जिन राज्यों को घने जंगलों व स्मोक के कारण नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन करनें में दिक्कत हो रही है उन्हें तुरंत हेलीकाप्टर मुहैया कराया जाए। देश की इस गंभीर समस्या का राजनीतिकरण करना बंद करना होगा। साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा आवंटित पैसे नक्सलियों तक न पहुंचे इसके लिए कोई ठोस व कारगर उपाय तुरंत करने होंगे। क्योंकि पिछली बार 25000 करोड़ रूपया सरकार ने आवंटित किया था लेकिन जमीन तक यह नहीं पहुंच सका। ज्यादातर इसे नक्सलियों ने लेबी के रूप में ले लिया। केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों द्वारों अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं होगा। सरकारों का यही हाल रहा तो आने वाली पीढ़ी देश के नेताओं को कभी माफ नहीं करेंगी।

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