Saturday, June 9, 2007



राजनैतिक स्वार्थों के चलते नक्सल

आतंकवाद नासूरबनता जा रहा है


राजीव कुमार

नक्सलियों द्वारा विहारी मजदूरों का सामूहिक नरसंहार, रानी बोदली का सामूहिक नरसंहार की याद देशवासियों को भूला भी न था कि तब तक 29 मई 2007 को माओवादी आतंकवादियों ने घात लगाकर छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित क्षेत्र में पुलिसबल के नौ कमांडरों को मार डाला। ये माओवादी हमले को अंजाम देने के पश्चात पुलिस के ढेर सारे असलहों को भी लूटा। सनद रहे कि अब ये माओवादी घात लगाकर हमले में बहुत तेज हो गए हैं। इससे पूर्व ये नक्सली रानीबोदली की घटना को घात लगाकर तब अंजाम दिया था जब पुलिस वाले शराब पीकर गहरी नीद में सो रहे थे। घात-प्रतिघात में तेज ये नक्सली हमले को इतने द्रुत-गति से अंजाम देते हैं कि सामने वाले को संभलने का मौका ही नही मिलता। अब माओवादी आतंकवादियों द्वारा रोज आए दिन एक न एक हत्या को अंजाम देना उनका क्रूरतम शगल बनता जा रहा है।

इस बार के ताजा हमले में राज्य की राजधानी से करीब 400 किमी दूर कुडुर गांव में माओवादियों से लोहा लेने पुलिस बल गए मगर हमले के लिए पहले से ही तैयार बैठे माओवादियों ने इन पुलिस वालों पर करीब 24 बारूदी सुरंगों का विस्फोट किया। साथ में बंदूकों, बमों से हमला कर नौ पुलिसकर्मियों को बर्बरता पूर्वक मार डाला।
आज नासूर बना नक्सलवाद विहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और आंध्रप्रदेश में गहरी जड़े जमा लिया है। आंध्र प्रदेश के तेलांगना क्षेत्र में तो यह समानांत सरकार चलाने का दावा करता है। इसके अतिरिक्त नक्सली अब स्वयं अपनी अदालत लगाकर लोगों को सजाए मौत देने का ऐलान करने लगे हैं। अभी हाल में करीब मई की अंतिम सप्ताह में नक्सलियों ने स्वयं भू अदालत लगाकर पारस गंझू, जारू गंझू, सूकन गंझू और पसला को घर से निकाल कर बुरी तरह से पीटा और बाद में गोलियों से भून डाला। नक्सलियों ने अपनी अदालत में आरोप लगाया कि इन चारों ने अपने समर्थक मुकेश यादव का शव गायब कर दिया, जिसके कारण चारों को मौत की सजा सुनाई जाती है।

आज परिस्थितियां अलग हैं। नक्सलियों ने अपनी रणनीति में भारी बदलाव किया है। 1990 से नक्सलियों ने अपने संगठन को अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित करना शुरू किया था। नक्सली आंदोलन में 2004 में बड़ी तब्दीली तब आई जब दो बड़े संगठन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप का आपस में विलय हो गया और एक नए संगठन सीपीआई माओवादी का गठन हुआ और इससे इनकी ताकत में दोगुना इजाफा हो गया। इस विलय के बाद नक्सली वारदातों में भारी वृध्दि दर्ज की गई।

इस समय उल्फा करीब रोज आए दिन एक न एक घटनाओं को अंजाम दे रही है। 1979 से हो रहे खूनी हिंसा के तांडव में दोनों पक्षों के 20 हजार से ज्यादा लोग काल के गाल में समा चुके हैं। और इन गठजोड़ों के बाद नक्सलियों का गठजोड़ अब लिट्टे से भी हो चुका है। ये नक्सली लिट्टे को भारत में छिपने का ठिकाना उपलब्ध करा रहे हैं। इसके बदले में लिट्टे उन्हें खतरनाक भारी तबाही वाले हथियार बनाना सिखा रहा है। अभी हाल ही में राजीव गांधी की पुण्यतिथि पर लिट्टे के समर्थन में नक्सलियों ने पूरी तरह बंद रखा। यह बंद 21 मई 2007 को सरकारी दमन विरोधी दिवस के तौर पर मनाया और इस दिन आंध्र और उड़ीसा के सीमावर्ती क्षेत्रों में बंद का भी आह्वान किया। नक्सलियों द्वारा बंद के इस आह्वान से लिट्टे-नक्सल गठजोड़ की आशंका की पूरी तरह पुष्टि हो गई।

सरकार को सारे स्वार्थों को दरकिनारा करते हुए आतंकियों को पूरी शक्ति के साथ सफाया करना चाहिए। ये नक्सली गरीबों के एक तपके को बहला-फुसलाकर उनके हांथो में बंदूक थमा देते हैं। सरकार को ऐसे गरीबों के पेट का ख्याल रखना होगा। नही तो वो दिन दूर नही जब नक्सलवाद के कारण पूरा देश धू-धू करके जल उठेगा।

Tuesday, June 5, 2007

नक्सली हिंसा के आगे घुटने टेकती सरकार

राजीव कुमार
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असम में बिहारी मजदूरों की नृशंस हत्या से देश उबर भी नहीं पाया था कि झारखंड में नक्सलियों ने सांसद सुनील महतो की हत्या कर यह दिखा दिया कि उनकी पहुंच कहां तक है और वे किस स्तर तक अपनें मंसूबे को पूरा कर सकते हैं। अपनें वारदातों को आगे बढ़ाते हुए नक्सलियों ने 15 मार्च 2007 गुरूवार की रात्रि को कभी न खत्म होनें वाली कालिमा के रूप में बदल कर रख दिया। नक्सली आंदोलन के इतिहास में इसके पहले किसी एक घटना में इतनें अधिक पुलिसकर्मी नहीं मारे गए थे। नक्सली आतंक के आगे केंद्र सरकार एकदम असहाय नजर आती है। नक्सलियों के बढ़ते हौसले व बेखौफ होनें का आलम यह है उन्होंने छत्तीसगढ़ के आदिवासी बहुल क्षेत्र में दंतेवाड़ा जिले के रानीबोदली में पचास से ज्यादा पुलिसकर्मियों को अत्यंत क्रूरता व निर्ममता से मौत की नींद सुला दिया। करीब पिछले दो सालों से नक्सली हिंसा ने छत्तीसगढ़ में ज्यादा कहर बरपाया है। नक्सली आतंक की इस आग में पूरा छत्तीसगढ़ जलता नजर आ रहा है। छत्तीसगढ़ में पिछले दो सालों में 1000 से ज्यादा लोग नक्सली आतंक के शिकार हुए हैं। पिछले चार दशकों में नक्सली आंदोलन 13 से अधिक राज्यों में फैल चुका है। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने 26 साल पूर्व बस्तर इलाके में सेंध लगाने की शुरूआत की थी और अब राज्य के 16 जिलों में से आठ में इसका प्रभाव है। केन्द्र सरकार नें भी नक्सली हिंसा को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया है। देश के करीब 13 राज्य नक्सली आतंक से प्रभावित है। जहां आए दिन नक्सली कहर बरपा करता है, 160 जिलों में नक्सलियों की पैठ है और 55 में इनकी समानांतर सरकार है। देश के 25 से तीस प्रतिशत हिस्सों में इन्हीं का कानून चलता है। ये आंकड़ें बेहद खौफनाक हैं। लेकिन इससे भी ज्यादा खौफनाक है केन्द्र सरकार की नक्सलियों के सामने ढुलमुल रवैया, विवशता, लाचारी और हार। जो दशकों से नक्सलवाद के तांडव-खूनी खेल को असहाय होकर उन्हें फलता-फूलता देखती नजर आ रही है।
अब इस स्थिति इतनी भयावह और बेकाबू हो गई है कि बंगाल के छोटे से इलाके नक्सलवाड़ी में किसानों को न्याय दिलाने की भावना से शुरू किया यह आंदोलन आज आतंकवाद के चौमुहानें पर बड़े द्रुत गति से बढ़ता जा रहा है। इसी का दुष्परिणाम है कि आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र,झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में मौत का खूनी तांडव बदस्तुर जारी है। नक्सलवाद का यह चेहरा आतंकवाद से भी ज्यादा खतरनाक और खौफनाक नजर आ रहा है। क्योंकि इसमें किसी बाहरी का नहीं बल्कि अपना ही अक्श प्रतिबिम्बित हो रहा है।
बहरहाल कुछ भी हो लेकिन नक्सली अपनें खिलाफ चलाए जा रहे सलवाजुडूम आंदोलन से बेहद आक्रोशित हैं। इस आंदोलन की शुरूआत जगदलपुर के रानीबोदली इलाके से हुई थी। यहां नक्सली हमले की आशंका को भांपते हुए साल भर पहले ही रानीबोदली और करकेली गांव में पुलिस ने अस्थाई कैंप बनाए थे। पर सालों से कोई हमला न देख पुलिस बेहद लापरवाह हो गई थी। जहां पुलिस सो रहे थे वहां उनकी सुरक्षा के लिए एक भी संतरी नहीं था। हकीकत यह है कि उस वक्त पुलिसकर्मी शराब के नशे में बेसुध थे और वे चाहकर भी नक्सलियों का मुकाबला नहीं कर सके। और तो और छत्तीसगढ़ की पुलिस द्वारा की जा रही गोरिल्ला कारवाई से नक्सलियों में बहुत बड़ा भय व्याप्त था और उनके हौसलें पस्त हो रहे थे।
ज्ञात रहे कि आंध्रप्रदेश के बाद छत्तीसगढ़ ही एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां पूर्णरूपेण सुनियोजित ढंग से पुलिसबल को गुरिल्ला युध्द की टेनिंग दे कर नक्सलियों के गढ़ को जमींदोह किया जा रहा है। राज्य सरकार द्वारा दिये जा रहे गुरिल्ला टे्रनिंग से पुलिसबल के अंदर जो साहस देखने को मिला वे आश्चर्य चकित करने वाले थे। इससे पूर्व आंध्रप्रदेश में भी पुलिस को गुरिल्ला प्रशिक्षण की सुविधा दी गई थी, जिससे वहां की पुलिस ने नक्सलियों का खात्मा करने में काफी हद तक सफलता पाई है। आंध्रा में नक्सलियों के उपर पुलिस का दबाव इस कदर हावी था कि उन्हें मजबूर होकर प्रदेश छोड़कर भागना पड़ा। यही वजह है कि छत्तीसगढ़ के नक्सलियों के मन में यह डर बैठ गया था कि अगर गोरिल्ला युध्द यहां भी जारी रहता है तो हमारे पांव यहां से भी उखड़ने में समय नहीं लगेगा। इसलिए ये नक्सली जो हिंसा कर रहे हैं वे बड़ी निराशा और हताशा में कर रहे हैं। इस हमले के पीछे नक्सलियों की मंशा यह थी कि वे इससे अपने खिलाफ चल रही पुलिसिया कार्रवाई को रूकवाने में सफल होंगे और सरकार को बातचीत के लिए मजबूर कर देंगे।
इस बात की सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता है कि देश के नक्सली आंदोलन को आतंकवादियों से हथियार और पैसे से मदद मिल रही है, क्योंकि उनके मदद के बगैर नक्सलियों के पास अत्याधुनिक हथियार नहीं आ सकते। बिडम्बना यह है कि हमेशा से आतंकवाद का पोषक रहा पाकिस्तान आज आतंकवाद को प्राणघातक मानता है। स्वयं मुशर्रफ ने भी कहा है कि आतंकवादियों को खदेड़ना पाकिस्तान के हित में होगा। लेकिन यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि अप्रैल, 2005 में भारत के संसद में केंद्रीय गृह मंत्री शिवराज पाटिल नक्सलियों के के बारे में बयान देते हैं कि-''हम वनवासी क्षेत्रों और जंगलों से आने वाले लड़के-लड़कियों से किस प्रकार व्यवहार करें? उनके पास रोजगार नहीं हैं। खाने को भरपेट भोजन नहीं हैं। अगर वे आवेश में आकर हथियार उठा लेते हैं तो इसमें हमारी सरकार क्या कर सकती है?'' इसका तात्पर्य यही है कि सरकार नक्सली हिंसा के कारण को जानती है, लेकिन कोई हल नहीं निकाल सकती।
हमारे देश में सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर भी जमकर राजनीति की जाती है। वोटबैंक की राजनीति के कारण पिछले लोकसभा चुनाव में आंध्रप्रदेश की स्पेशल यूनिट को बंद कर दिया गया। इससे पूर्व यह घटिया राजनीति एनटी रामाराव द्वारा 1982 में की गई थी, जब उन्होंने नक्सलियों को वास्तविक महान देशभक्त कहा था। इसी रास्ते को अख्तियार करते हुए कांग्रेस के मुख्यमंत्री एम चेन्ना रेड्डी भी 1989 में नक्सलियों को देशभक्त घोषित किया था। एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायुडू ने नक्सलियों के खिलाफ आक्रामक रवैया अपनाया था तो दूसी तरफ राजशेखर रेड्डी ने नक्सलियों को खुश करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ये हमारे देश का महादुर्भाग्य नहीं तो और क्या है?
लेकिन हकीकत में नासूर बन चुकी नक्सली समस्या से निपटने के लिए आज एक ईमानदार, पारदर्शी, जनता के प्रति समर्पित और लोकतांत्रिक रणनीति चाहिए। और ये काम राजनीतिक दल अपनें अंदर तीव्र इच्छाशक्ति उत्पन्न कर बखूबी कर सकते हैं। क्योंकि नक्सली हमेशा भ्रष्टाचार के मुद्दे उठाते रहते हैं। आज ये नक्सली देशी तमंचों के भरोसे अपनी जंग नहीं लड़ रहे हैं बल्कि उनके पास मौजूद आधुनिक हथियारों के जखीरे में एके- 47, राकेट लांचर, लैंड माइंस, ग्रेनेड आदि हैं। इसके अलावा उनके पास करीब पचीस हजार प्रशिक्षित सेना है।
आज परिस्थितियां अलग हैं। नक्सलियों ने अपनी रणनीति में भारी बदलाव किया है। 1990 से नक्सलियों ने अपने संगठन को अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित करना शुरू किया था। नक्सली आंदोलन में 2004 में बड़ी तब्दीली तब आई जब दो बड़े संगठन माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर यानी एमसीसी और पीपुल्स वार ग्रुप का आपस में विलय हो गया और एक नए संगठन सीपीआई माओवादी का गठन हुआ और इससे इनकी ताकत में दोगुना इजाफा हो गया। इस विलय के बाद नक्सली वारदातों में भारी वृध्दि दर्ज की गई।
अगर हम इन प्रमुख नक्सली घटनाओं को देखें तो स्थिति की भयावहता का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है: 20 नवं. 2003 को उत्तर प्रदेश में बारूदी सुरंग की चपेट में आने से एक ट्रक में बैठे 18 पुलिसकर्मी मारे गए। 4 सितंबर 2005 को छत्तीसगढ़ में एक बारूदी सुरंग बिस्फोट में 23 की मौत। 12 सितंबर 2005 को झारखंड के एक गांव में 15 लोगों की मौत। 8 अक्टूबर 2005 को झारखंड में 25 पुलिसकर्मी मारे गए। 28 फरवरी 2006 को छत्तीसगढ़ के कोटा क्षेत्र दरबागुड़ा में बारूदी सुरंग विस्फोट में 29 ग्रामीणों की मौत। 17 जुलाई 2006 को छत्तीसगढ़ के एर्राबोर राहत शिविर पर हमला, 35 की हत्या। 4 मार्च 2007 को जमशेदपुर के सांसद सुनील महतो की निर्ममता पूर्वक हत्या। 15 मार्च 2007 को पुलिस बेस कैंप पर हमला कर 55 पुलिसकर्मियों की हत्या। पूरे वर्ष 2006 में कुल 700 नक्सली वारदातें हुई और 600 मौतें।
आज केन्द्र सरकार आए दिन हो रहे नक्सली वारदातों को राज्य की समस्या बताकर पल्ला नहीं झाड़ सकती। सरकार नरम रवैया अपनाकर नक्सलियों के मनोबल को और बढ़ा रही है। एक विचार के रूप में उभरा नक्सलवाद आतंकवाद का ही एक प्रतिरूप है। यह देश की शांति, एकता और अखंडता के लिए बहुत खतरानाक साबित होगा। इसकी वकालत करना यानी एक और विभाजन को न्योता देना है। जहानाबाद जेल कांड जैसे बड़े वारदात को अंजाम देनें से पूर्व नक्सलियों ने जनमत को अपने पक्ष में कर लिया था। पिछले अनुभव यह बताते हैं कि नक्सलियों का मुकाबला करने से पूर्व उनके विरूध्द जनमत तैयार करने की रणनीति कारगर साबित हो सकती है। राज्य सरकारों को चाहिए कि वे नक्सलियों के लिए हथियार उठाने वाले नौजवानों के रोजगार का ध्यान रखें और उनके साथ हो रहे अन्याय को दूर कर सकें तो इस समस्या को जड़ से मिटाने में काफी हद तक सफलता मिल सकती है। केवल सुरक्षाबलों के सहारे इनसे निपटना मुश्किल ही नहीं असंभव है। नक्सलवाद को एक राष्ट्रीय समस्या बता राज्याें को केन्द्र से अगुवाई करने के बजाय उन्हें विकास, जनमत और चुस्त-दुरूस्त पुलिस व्यवस्था बनाना चाहिए। नहीं तो आज नक्सलियों का आतंक 92000 किलोमीटर क्षेत्र में है। अगर इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो वो दिन दूर नहीं जब यह पूरे भारत को अपनी चपेट में ले लेगा।
आज जरूरत है कि नक्सलवाद से पीड़ित राज्यों को उससे निपटने लिए केन्द्र सरकार विशेष फोर्स की सुविधा उन्हें तुरंत दे। जिन राज्यों को घने जंगलों व स्मोक के कारण नक्सलियों के खिलाफ ऑपरेशन करनें में दिक्कत हो रही है उन्हें तुरंत हेलीकाप्टर मुहैया कराया जाए। देश की इस गंभीर समस्या का राजनीतिकरण करना बंद करना होगा। साथ ही केन्द्र सरकार द्वारा आवंटित पैसे नक्सलियों तक न पहुंचे इसके लिए कोई ठोस व कारगर उपाय तुरंत करने होंगे। क्योंकि पिछली बार 25000 करोड़ रूपया सरकार ने आवंटित किया था लेकिन जमीन तक यह नहीं पहुंच सका। ज्यादातर इसे नक्सलियों ने लेबी के रूप में ले लिया। केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों द्वारों अपनी जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं होगा। सरकारों का यही हाल रहा तो आने वाली पीढ़ी देश के नेताओं को कभी माफ नहीं करेंगी।
इतिहास गवाह है हिंसा से किसी भी
जनआंदोलन को नहीं दबाया जा सका
संतोष सिंह
इतिहास गवाह है कि किसी भी विचारधारा का विस्तार जोर जबरदस्ती से नहीं किया जा सका है और न ही हिंसा से किसी जनआंदोलन को दबाया जा सका है। छत्ताीसगढ राज्य के बस्तर क्षेत्र में भी कामोबेश स्थिति आज यही है। नक्सली अपनी विचारधारा को लोगों पर जबरन लादने का प्रयास कर रहे हैं और उनकी बात नहीं मानने पर वे तरहतरह से लोगों को परेशान कर रहे हैं, यहां तक कि नक्सलियों की बात नहीं मानने पर वे निर्दोष ग्रामीणों की हत्या कर देते हैं, फिर भी बस्तर के लोग नक्सलियों के आगे झुकने को तैयार नहीं हैं, भले ही उन्हें अपनी जान की बाजी ही क्यों न लगानी पडे और इसकी परिणिति सलवा जुडूम अभियान है।
सन् 1967 में पश्चिम बंगाल के दार्जीलिंग जिले के नक्सलबाडी गांव में शुरु हुआ सशस्त्र विद्रोह नक्सल आंदोलन कहलाया। माओत्सेसुंग़ की विचारधारा से प्रभावित नक्सलवाद के जनक चारु मजूमदार, कनु सान्याल तथा उनके साथी थे। सन् 1972 में आंध्रप्रदेश में एक घोर माओवादी नक्सली नेता कोंडापल्ली सीता रमैया का उदय हुआ। उन्होंने सशस्त्र संघर्ष पर जोर दिया। अपनी इस अलग विचारधारा को स्थापित करते हुए सीता रमैया ने सशस्त्र अतिवादियों का संगठन पीपुल्स वार गुप (पी.डब्ल्यू.जी.) बनाया। गुरिल्ला युद्ध इनका प्रमुख हथियार बना। वर्तमान में देश के 13 राज्यों के 200 से अधिक जिले नक्सल प्रभावित हैं। नक्सलवाद से सर्वाधिक प्रभावित राज्यों में छत्तीसगढ, झारखंड, आंध्रप्रदेश, महाराष्ट्र, उडीसा एवं बिहार शामिल हैं। छत्तीसगढ में सर्वप्रथम 1968 में बस्तर में नक्सली पर्चे वितरित होते देखे गए। घने वनों से अच्छादित बस्तर के दण्डकारण्य क्षेत्र को गुरिल्ला लडाई के उपयुक्त पाये जाने पर नक्सलियों ने यहां पैर पसारा। पहले यहां सर्वे का काम हुआ। फिर गांवग़ांव में घूमकर जनसमूह को नाचग़ाना के माध्यम से आकर्षित किया गया। दूसरे चरण में नक्सलियों ने बांस से लेकर तेंदूपत्ता आदि वनोपज की उचित मजदूरी की मांग को लेकर उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया तथा उनका विश्वास अर्जित करने का प्रयास किया। भोलेभाले ग्रामीणों को गुमराह कर संघम सदस्य के रुप में शामिल कर नक्सली अपनी गतिविधियां बढाते रहे।
प्रारंभ में नक्सलियों की कुछ विचारधारा थी और उनके कुछ सिद्धांत थे, जिससे लोग उनकी ओर आकर्षित भी हुए, लेकिन आज नक्सली अपनी विचारधारा और सिद्धांत से भटक गये हैं। आज उनके पास कोई विचारधारा नहीं है। इसीलिए वे बस्तर के निरीह एवं निर्दोष आदिवासियों की हत्या करने से भी नहीं चूकते हैं। नक्सली इन क्षेत्रों में विकास एवं निर्माण कार्य नहीं होने देते और शासन द्वारा संचालित विभिन्न योजनाओं के क्रियान्वयन में बाधक बने हुए हैं। इतना ही नहीं बल्कि अब दक्षिण बस्तर दंतेवाडा जिले के बासागुडा, आवापल्ली एवं उसूर आदि क्षेत्रों में आदिवासियों को खेती नहीं करने देकर आदिवासियों के जीने के अधिकार का सीधासीधा हनन कर रहे हैं। नक्सली मानव अधिकारों का सीधासीधा उल्लंघन कर रहे हैं। आये दिन बेगुनाह लोगों को अगवा कर उनकी हत्या कर देते हैं। नक्सलियों ने आदिवासियों की परंपरा एवं संस्कृति को भी क्षति पहुंचाई है। बस्तर के आदिवासियों की विश्व विख्यात प्रथा घोटुल भी अब दम तोडने लगा है। नक्सलियों ने दोरनापाल राहत शिविर में रह रहे ग्रामीणों को गर्मी के दिनों में बंधक बनाकर उन्हें भूखेप्यासे रखा और प्यास बुझाने के लिए पानी के साथ मूत्र मिलाकर दिया। नक्सलियों ने एर्राबोर के राहत शिविर में रात्रि में अचानक आगजनी कर सोते हुए बेगुनाह लोगों को मौत के घाट उतार दिया। यहां तक कि 6 माह की बच्ची को भी आग में झोंकते समय समय उन्हें कोई तरस नहीं आया। नक्सलियों ने विशेष पुलिस अधिकारी 15 वर्षीय बालिका के साथ भी सामूहिक अनाचार कर सम्पूर्ण मानवता को कलंकित किया है।
यदि नक्सलवादी विचारधारा से बस्तर क्षेत्र का विकास होना होता तो आज दुनिया की अनोखी जनक्रांति सलवा जुडूम अभियान नहीं शुरु हुआ होता। नक्सलियों के विकास विरोधी रवैया ने आदिवासियों के मन में उनके प्रति उब पैदा कर दी और इसी उब के चलते सलवा जुडूम जैसे जनआंदोलन का जन्म हुआ। ग्रामीणों का स्वस्फूर्त आंदोलन सलवा जुडूम का पहला जनजागरण अभियान वर्ष 2005 से शुरु हुआ और 4 जून 2006 को इसकी सालगिरह मनाई गई। गोडी भाषा के शब्द सलवा जुडूम का शाब्दिक अर्थ शांति मिशन है। इस अभियान को सभी राजनीतिक दलों के लोग बगैर भेदभाव के समर्थन दे रहे हैं। यह अभियान अब तक 644 गांवों में संपन्न हो चुका है। इस अभियान से बस्तर क्षेत्र के विकास की नई आस जागी है। सलवा जुडूम अभियान को राज्य सरकार द्वारा पूर्ण सहयोग दिया जा रहा है। सलवा जुडूम अभियान का अच्छा प्रभाव आंध्रप्रदेश के वारंगल में भी पहुंचा। वहां के नक्सलियों को घर वापस बुलाने हेतु उनके परिवार के बुर्जुगों ने मार्मिक अपील की है। छत्तीसगढ में नक्सली आतंक से अपने घर बार छोड चुके 45 हजार से अधिक लोगों के लिए राज्य सरकार की ओर से 27 स्थानों पर राहत शिविर खोले गये। इन शिविरों में रहने वाले ग्रामीणों हेतु भोजन एवं चिकित्सा आदि की व्यवस्था की गई। इनके पुनर्वास के लिए 36 करोड रुपये का विशेष पैकेज दिया गया। 8 करोड 81 लाख रुपये की लागत से 6 हजार से अधिक रोजगारमूलक कार्य शुरु कराये गये। ग्रामीण परिवारों को 853 बैल जोडी दी गई। राहत शिविरों में रहने वालों को स्थायी आवास उपलब्ध कराने 24 स्थानों पर 4535 आवास गृहों का निर्माण कराया जा रहा है। 3801 किसानों को 1998 क्वींटल धान बीज नि:शुल्क दी गई और 136 किसानों की 260 एकड जमीन की ट्रेक्टर से नि:शुल्क जुताई की गई।
नक्सलियों के बारे में पहले बात करने से भी लोग डरते थे, लेकिन मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह द्वारा सत्ता की बागडोर सम्हालते ही नक्सली समस्या को गंभीरता से लिया गया। उन्होंने केन्द्र सरकार के सामने भी इस समस्या को केवल कानून व्यवस्था की समस्या न मानकर एक राष्ट्रीय समस्या मानने के संबंध में अपना पक्ष बडी मजबूती से रखा। राज्य सरकार द्वारा नक्सली समस्या से निपटने के लिए सुरक्षा के साथ ही विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। सरगुजा एवं उत्तार क्षेत्र तथा बस्तर और दक्षिण क्षेत्र आदिवासी विकास प्राधिकरणों की स्थापना कर इनके माध्यम से जनप्रतिनिधियों के सुझावों के अनुरुप करोडों रुपयों के निर्माण कार्य कराये जा रहे हैं। आत्म समर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए राज्य सरकार द्वारा आकर्षक पुनर्वास पैकेज घोषित किये गये हैं। छत्तीसगढ में इनामी नक्सलियों को समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए आंध्रप्रदेश की तर्ज पर आत्म समर्पण करने पर उनकी गिरफ्तारी के लिए घोषित इनाम भी उन्हें दिये जाने पर विचार किया जा रहा है। नक्सली घटना में मृत्यु होने पर प्रभावित परिवार के आश्रित को एक लाख रुपये की राहत, प्रत्येक मृत के परिवार के एक सदस्य को शासकीय नौकरी, हाऊसिंग बोर्ड की ओर से एक लाख रुपये तक के मकान, घायल व्यक्ति (असमर्थता) को 50 हजार रुपये, गंभीर रुप से घायल को 10 हजार रुपये, कच्चे मकान के नुकसान पर 10 हजार रुपये, पक्के मकान के नुकसान पर 20 हजार रुपये, चल संपत्ति (अनाज, कपडा, घरेलू सामान) के नुकसान पर 5 हजार रुपये, आजीविका के साधन (बैलगाडी, नाव) के नुकसान पर 10 हजार रुपये और जीप, ट्रेक्टर के नुकसान पर 25 हजार रुपये राहत राशि दी जाती है। अब तक 268 शहीद ग्रामीणों के परिवारजनों को 310 लाख रुपये की सहायता प्रदान की गई। इसके साथ ही 296 घायल ग्रामीणों को 37 लाख 83 हजार रुपये, 282 क्षतिग्रस्त मकानों के लिए 62 लाख 33 हजार रुपये, संपत्तिा हानि के 429 प्रकरणों में 10 लाख 25 हजार रुपये और 924 आत्म समर्पित संघम सदस्यों को 40 लाख 20 हजार रुपये की सहायता दी गई है।
नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में सुरक्षा बल तैनात कर पडोसी राज्यों के पुलिस अधिकारियों के साथ समन्वय स्थापित कर नक्सली उन्मूलन अभियान चलाया जा रहा है। इस नक्सली उन्मूलन अभियान के अच्छे परिणाम आये हैं, जिसमें गढचिरौली डिविजनल कमेटी का सर्वोच्च कमांडर विकास, कुख्यात नक्सली सब जोनल कमांडर रमेश नगेशिया, झारखंड के जोनल कमांडर मानस, दुर्दांत नक्सली जोनल कमांडर नारायण खैरवार सहित अनेक कुख्यात नक्सली मारे गये और गिरफ्तार किये गये। छत्तीसगढ में शुरु किये गये नक्सली उन्मूलन अभियान से प्रभावित होकर निकटवर्ती राज्य महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, उडीसा एवं झारखंड में भी यह अभियान चलाया जा रहा है। छत्तीसगढ में नक्सली उन्मूलन अभियान को अच्छी सफलता मिल रही है। वर्ष 2003 में जहां 10 नक्सली मारे गये थे, वहीं 2004 में 13 नक्सली, 2005 में 27 नक्सली और 2006 में अब तक 50 नक्सली मारे गये हैं। नक्सली मुठभेडों में भी बढोत्तारी हुई है। वर्ष 2003 में जहां 81 मुठभेड हुई थी, वहीं 2004 में 162 मुठभेड, 2005 में 198 मुठभेड एवं 2006 में अब तक 263 मुठभेडें हुई है। नक्सलियों की गिरफ्तारी भी बढी है। वर्ष 2003 में जहां 12 नक्सली गिरफ्तार किये गये थे, वहीं 2004 में 50 नक्सली, 2005 में 128 नक्सली एवं 2006 में अब तक 51 नक्सली गिरफ्तार किये गये हैं । साथ ही 2003 में 93 संघम सदस्य गिरफ्तार किये गये थे, वहीं 2004 में 411 संघम सदस्य, वर्ष 2005 में 395 एवं 2006 में अब तक 168 संघम सदस्य गिरफ्तार किये गये हैं। आत्म समर्पण करने वाले नक्सलियों और संघम सदस्यों की संख्या में भी इजाफा हुआ है। वर्ष 2003 में जहां 37 नक्सली संघम सदस्यों ने आत्म समर्पण किया था, वहीं वर्ष 2005 में 1415 और 2006 में अब तक 1261 नक्सली एवं संघम सदस्यों ने आत्म समर्पण किया है। इसके अलावा नक्सलियों के कई कैम्प ध्वस्त किये गये और उनके पास से लैण्डमाइन, हथियार, हेण्डग्रेनेड, रॉकेट लांचर, मोर्टार, वायरलेस सेट, मोटर सायकल और दैनिक उपयोगी की सामग्री बरामद की गई।
राज्य सरकार द्वारा सुरक्षा के साथ ही विकास पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में आवागमन के साधन विकसित करने के उद्देश्य से साढे चार करोड रुपये से अधिक लागत की सडकों और पुलपुलियों का निर्माण पुलिस अभिरक्षा में युद्ध स्तर पर कराये जा रहे हैं। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में नक्सलियों के भय के चलते टेंडर भरने के लिए ठेकेदार सामने नहीं आ रहे थे। इस समस्या की ओर सरकार का ध्यान जाने पर नक्सली क्षेत्र में पीस वर्क पद्धति से कार्य कराने की अनुमति दी गई और कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों से कहा गया कि वे अपने क्षेत्रों में निर्माण कार्यों पर भी विशेष ध्यान देवें तथा जहां जरुरत हो वहां निर्माण कार्य कराने के लिए पुलिस बल भी उपलब्ध करायें। राज्य शासन के इस फैसले से नक्सल प्रभावित क्षेत्रों के निर्माण कार्यों में भी गति आई है।
राज्य सरकार द्वारा नक्सली उन्मूलन अभियान के तहत हथियार लाओ इनाम पाओ अभियान चलाया जा रहा है। हथियार सहित आत्म समर्पण करने वाले नक्सलियों को एल.एम.जी. हेतु 3 लाख रुपये, ए.के. 47 हेतु 2 लाख रुपये, एस.एस.आर. हेतु 1 लाख रुपये, थ्री नॉट थ्री रायफल हेतु 50 हजार रुपये, 12 बोर बंदूक हेतु 20 हजार रुपये दिया जाता है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पदस्थ पुलिस जवानों और सुरक्षा बलों के लिए 10 लाख रुपये का बीमा कराया गया है। नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में अदम्य साहस का परिचय देने वाले जवानों को क्रम पूर्व पदोन्नति भी दी जाती है और इस वर्ष अब तक 104 जवानों को इसका लाभ मिला है।
सुरक्षा बल के जवान नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में शांति स्थापित करने के लिए रातदिन लगातार प्रयास कर रहे हैं, लेकिन नक्सली आतंक के विरुद्ध आज वैचारिक क्रांति लाने की जरुरत है। कुछ स्वयं सेवी संगठनों ने जरुर नक्सलियों के आतंक के खिलाफ आवाज उठाई है। छत्तीसगढ के हर नागरिक को चाहिए कि वह नक्सली समस्या को केवल बस्तर के लोगों की समस्या न माने, बल्कि अपनी समस्या मानकर उसके निदान के लिए हर स्तर पर यथा संभव सहयोग करे। इतिहास साक्षी है कि हिंसा से किसी भी जनआंदोलन को नहीं दबाया जा सका है। जलियावाला बाग में कितनी गोलियां चली, लाशों के ढेर लग गये परन्तु स्वतंत्रता आंदोलन को नहीं दबाचा जा सका और अंत में भारत स्वतंत्र हुआ तथा अंग्रेजों को भारत छोडकर जाना पडा। उसी तरह बस्तर के आदिवासियों द्वारा नक्सलियों के खिलाफ शुरु किया गया सलवा जुडूम अभियान को भी नक्सली हिंसा से नहीं दबाया जा सकता है। नक्सली आतंक से सलवा जुडूम अभियान बंद होने वाला नहीं है और उम्मीद है कि एक न एक दिन बस्तर में जरुर शांति स्थापित होगी तथा नक्सलियों को बस्तर छोडकर जाना पडेगा।
इन आदिवासियों का कसूर क्या है ?

दिनॉक 23.05.07 को ND TV नई दिल्ली से कुछ पत्रकार आए। उन्होने हिमांशु कुमार जी, संचालक वनवासी चेतना आश्रम, कंवलनार दन्तेवाड़ा (स्वयं सेवी संस्था) एवं मुझसे वर्तमान में नक्सलवाद एवं सलवा जुडुम के कारण ग्रामीण आदिवासियों के बीच में पैदा हो रही दिक्कतों के विषय में जानना चाहा। इस पर हम लोगों ने उन्हे ग्रामीण आदिवासियों की दिक्कतों के विषय में जानने हेतु कुछ शिविरों एवं ग्रामों में लोगों से भेंट करने की सलाह दी। इस पर उन्होने दो दलों का निर्माण किया। एक दल शिविरों में लोगों से भेंट करने के लिए एवं दूसरा दल ग्रामो में लोगों से भेंट करने के लिए। शिविरों में लोगों से भेंट करने वाला दल दोरनापाल, कोंटा, ऐर्राबोर गया। अब सवाल यह था कि ग्रामों में लोगों से भेंट करने वाले दल को कहॉ ले जाया जाए। उसी वक्त मुझे ख्याल आया कि मुझे यूनीसेफ, छत्तीसगढ़ द्वारा ग्रामों में रह रहे लोगों की, विशेषकर महिलाओं एवं बच्चों की स्थिति की जानकारी प्राप्त करने के लिए इन्द्रावती नदी के पार जाना है। अत: ग्रामों का भेंट करने वाले दल की ज़िम्मेदारी मैंने ले ली। ND TV के इस दल को हमने पुलिस अधीक्षक दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा से भेंट कर इस बात की जानकारी देने को कहा कि वे इन्द्रावती नदी के पार के गॉवों में जाकर वहॉ पर रह रहे लोगों की स्थिति का जायजा लेना चाहते हैं। इस पर उन्होने बांगापाल के थाना प्रभारी को इसकी जानकारी देते हुए कहा की उन्हे नदी पार जाने दिया जाए। हम लोग दूसरे दिन अर्थात् 24.05.07 को सुबह 5:30 बजे दन्तेवाड़ा से निकले और सुबह 7:00 बजे हमने इन्द्रावती नदी को पार किया। इस दौरान हमने गौर किया कि कुछ सहमी हुई ऑखें हमें देख रही हैं। इस दल में ND TV से आए हुए साथी श्री सुधीर रंजन सेन एवं कैमरा मेन श्री दिवाकर तथा कोपाराम कुंजाम एवं मैं स्वयं थे।
ग्राम भेंट का प्रतिवेदन (ग्रामीणों की स्थिति एवं उनके वक्तव्य):-जब हम इन्द्रावती के नदी के किनारे लगा हुआ गॉव चिन्गेर पहुंचे तो हमने देखा कि कुछ छोटे-छोटे बच्चे एवं महिलाऍ आम पेड़ों के नीचे एकत्र होकर आम बिन रही हैं। जब हम उनके पास पहुंचने लगे तो उन्होने हमें देख लिया एवं जंगल की तरफ भागने लगे। हमने स्थानीय बोली में उनसे पुकार कर कहा कि रूक जाइये, हम आपसे कुछ नहीं कहेंगे। इस पर भी वे नहीं रूके। हमने खाली पड़े हुए घरों में जाकर यह पता लगाने की कोशिश की कि शायद कोई व्यक्ति मिल जाए। हमारे प्रयास से हमें एक घर में दो व्ध्द पुरूष एवं एक वृध्द महिला मिल गई, वे गंभीर रूप से बीमार थे। हमने देखा कि एक हाथ एवं अण्डकोष में बुरी तरह से खुजली हो गई, साथ ही उसके हाथ एवं पैरों में फोड़े हो गये हैं, जिससे वह चल फिर पाने में भी असक्षम है। उसने हम लोगों को बताया कि पिछले छह महीने वह इस गंभीर स्थिति से गुजर रहा है। दूसरे व्यक्ति ने बताया की उसे भी भयंकर खुजली हो गई है एवं वह इसके कारण से चल फिर नहीं सक रहा है। उन लोगों से भोजन हेतु सामग्री की उपलब्धता के बारे में पूछा तो उन्होने बताया कि उनके पास अनाज नहीं है, वर्तमान में वे आसपास के जंगल-झाड़ियों से प्राप्त कंदमूल एवं अन्य प्रकार के फलों का सेवन कर अपने जान की रक्षा किये हुए हैं। जब उनसे पूछा गया कि वे राशन एवं नमक तेल इत्यादि लेने तुमनार बाज़ार क्यों नहीं जाते हैं, इस पर उन्होने बताया कि ''हम इन सामग्रियों को लेने जाना तो चाहते हैं, परन्तु नेलसनार एवं कासोली शिविरों में वास कर रहे हमारे एवं आसपास के ग्रामों के निवासी नदी पार नहीं करने देते हैं एवं यदि कोई इस प्रकार का प्रयास करता है तो उसे पीट-पीटकर बेदम कर दिया जाता है और शिविर में ले जाकर पटक दिया जाता है व उसे वापस आने नहीं दिया जाता है। कभी-कभी उनका कत्ल भी कर दिया जाता है। ऐसे अनेक कत्ल सलवा जुडुम, विशेष पुलिस अधिकारी एवं सुरक्षा कर्मियों के द्वारा किये गये हैं।'' जब हमने उन वृध्दों से जंगल की ओर भाग खड़े हुए औरतों एवं बच्चों के विषय में पूछा तो बताया कि वे कासोली शिविर से वापस भाग कर आए हुए हैं एवं नदी पार से कोई भी व्यक्ति आता है तो हम सभी भाग खड़े होते हैं, क्योंकि वह सलवा जुडुम या सुरक्षा कर्मियों से संबंधित हो सकता है और यदि कोई भी व्यक्ति उन लोगों के हाथ में आता है तो वे उसकी बुरी तरह से पिटाई करते हैं एवं शिविर में लेकर चले जाते हैं। वे सभी अब शिविर में वापस नहीं जाना चाहते हैं, इसीलिए डरकर भाग जाते हैं।
इसके पश्चात् हम लोग आगे बढ़कर ऐहकेली ग्राम पहुंचे वहॉ पर हमें एक अंधे के अलावा कोई नहीं मिला। हमारे पास समय की कमी थी, इसी वज़ह से हम लोग तेजी से चलते हुए ओड़सा नामक ग्राम पहुंचे । वहॉ पर हमें बहुत से लोग मिले वे काफी डरे हुए थे, परन्तु हमने उन्हे अपने आने का उद्देश्य बताया तो वे कुछ सामान्य हुए। फिर उन्होने अपनी बात हमारे सामने रखी। उसमें से एक-दो लोग मेरे पूर्व परिचय के भी मिले। महिलाओं ने बताया कि उनके पास खाने-पीने का सामान नहीं है, उनके बच्चे बीमार हो जाते हैं तो उन्हे दवाई नहीं मिल पाती है और वे मर जाते हैं, ग्रामीणों ने बताया कि ग्राम निराम में काफी सारे लोग रहते हैं और हमें उनके पास जाना चाहिए और वहॉ पर सारी तकलीफों के विषय में आसानी से चर्चा की जा सकेगी। इस पर हम लोग पैदल चलते हुए वहॉ पर पहॅुचे, वहॉ पर काफी सारे लोग हमें पहले से ही बैठे हुए मिले। लोगों ने बड़े ही आदर से हम चारों को बैठाया। हमने उनसे शासन द्वारा प्रदान की जाने वाली सुविधाओं के विषय में पूछा तो उन्होने बताया कि यहॉ पर पिछले तीन वर्षों से किसी भी प्रकार की शासकीय सुविधाऍ शासन द्वारा नहीं प्रदान की जा रही हैं। तीन वर्ष पूर्व तक यहॉ पर स्कूल एवं ऑगनबाड़ी केंद्र चला करते थे, परन्तु वे भी नियमित नहीं चलते थे। इसी प्रकार स्वास्थ्य कार्यकर्ता भी कभी-कभी आ जाया करते थे, इससे कम से कम हमें एवं हमारे बच्चों को थोड़ी बहुत राहत मिल जाया करती थी। परन्तु वर्तमान में सलवा जुडुम के शुरू होते ही ये सारी सुविधाऍ शासन द्वारा बंद कर दी गई हैं। ग्रामीण कहते हैं कि उनकी समझ में नहीं आया कि ये सारी सुविधाऍ शासन द्वारा क्यों बंद कर दी गई हैं, जबकि इन कार्यक्रमों के संचालन में कभी भी किसी के द्वारा कोई आपत्ति दर्ज नहीं की गई है। इन ग्रामों में रह रहे ग्रामीणों का कहना है कि जब सलवा जुडुम शुरू हुआ था, उस समय ज़ोर ज़बरदस्ती करके चिन्गेर, ऐहकेली, सतवा, बांगोली इत्यादि ग्रामों के समस्त ग्रामीणों को सलवा जुडुम के नेताओं एवं फोर्स द्वारा ले जाया गया, परन्तु हमने सोचा कि यदि यहॉ से वहॉ चले गये तो फिर हम न तो खेती-बाड़ी कर सकेंगे और न ही वनोपज संग्रहण कर सकेंगे, जोकि हमारे जीवन-यापन के मूल साधन हैं। इससे हम सभी वहॉ भूखों मर जाऍगे । ग्रामीणों ने इस बात का वक्तव्य दिया है कि उनके जीवन निर्वहन के लिए अनाज, नमक, तेल, मिर्च, कपड़ा इत्यादि साधनों को ठोठा है, क्योंकि यदि वे नदी पार करके गीदम या तुमनार बाजार जाते हैं, तो उन्हे सलवा जुडुम के सदस्यों एवं फोर्स द्वारा पकड़कर बुरी तरह पीटा जाता है और शिविर में ले जाकर फेंक दिया जाता है या फिर कत्ल कर दिया जाता है, इसीलिए वे बाज़ार जाते ही नहीं हैं। यदि उन्हे जीवन निर्वहन के इन साधनों की आवश्यकता पड़ती है तो एक अन्य बाजार जोकि 80 किमी. दूर है, वहॉ पैदल जाते हैं, इसमें उन्हे अपने तीन दिन गॅवाने पड़ते हैं।
ग्रामीणों का यह भी कहना था कि सलवा जुडुम के चलते घरेलू परिवारों के बीच खाई पैदा हो गई है, आज की स्थिति में भाई-भाई को नहीं पहचानता, वे एक दूसरे को शत्रु के दृष्टिकोण से देखते हैं। हमारे सारे सांस्कृतिक व्यवस्थाऍ, परंपराऍ, तीज-त्यौहार बंद हो गये हैं और इससे आदिवासियों की वर्षों से संचित एवं पोषित सांस्कृतिक विरासत को गहरा आघात पहुंचा है। ग्रामीणों के अनुसार अब न तो उनके ग्रामों मेला होता है और न ही कोई त्यौहार। उन्होने बताया कि पिछले तीन सालों में इस क्षेत्र के 30 से भी अधिक ग्रामों में भयवश कोई शादी नहीं हुई।
ग्रामीणों ने यह भी बताया कि सलवा जुडुम के सदस्य, विशेष पुलिस अधिकारी, जिनमें से अधिकतर भूतपूर्व संघम सदस्य हैं, केंद्रीय रिज़र्व फोर्स तथा पुलिस के लोग समय-समय पर आते हैं और कुछ लोगों को जान से मार डालते हैं एवं कुछ को पकड़ कर ले जाते हैं, हमें अपनी जान बचाकर जंगल में भाग जाना पड़ता है, इन लोगों के द्वारा जवान लड़कियों के साथ बलात्कार के भी अनेक उदाहरण हैं। हाल ही में ओड़सा ग्राम के एक लड़की के साथ भी इनके द्वारा बलात्कार किया गया है। इसके अलावा जब ये लो गॉवों में आते हैं और यदि कोई छोटा बच्चा मिल जाता है तो उसे पैर से पकड़कर जमीन पर पटककर मार डाला जाता है।
ग्राम भेंटकर्ता का अभिमत:- जब मै, कोपाराम कुंजाम एवं मेरे अन्य दो साथी जोकि ND TV नई दिल्ली से आए हुए थे, ने जाकर ग्रामीणों से भेंट किया एवं उनसे विभिन्न विषयों पर चर्चा किया तो यह बात खुलकर आई कि लोग वर्तमान परिस्थितियों में अत्यंत दुखी हैं एवं गंभीर रोगों के शिकार हैं। जिस तरह से वे जी रहे हैं, उससे बेहतर तो जानवरों की जिन्दगी है। उनके पहनने के कपड़े चीथड़े हो गये हैं, उनके पास खाने को अनाज, दाल, नमक, तेल, हल्दी, मिर्च इत्यादि सामग्रियों का पूर्णाभाव है। सुरक्षाकर्मी एवं सलवा जुडुम के सदस्य समय-समय पर इन ग्रामों में नक्सली उन्मूलन ऑपरेशन के नाम पर जाते हैं और मासूम ग्रामीण आदिवासियों की हत्या कर देते हैं, जवान बालिकाओं एवं महिलाओं के साथ दर्ुव्यवहार करते हैं एवं उनके बच्चों को जान से मार डालने की घटनाओं को अंजाम देते हैं। लोगों को खुजली, मलेरिया एवं अन्य प्रकार की गंभीर बीमारियों ने घेर लिया है और उनके इलाज के लिए उनके पास किसी प्रकार की व्यवस्था नहीं है। इसके अलावा उन्हे किसी भी प्रकार की मूलभूत सुविधा प्रदान नहीं की गई है, लोग जंगल से कंदमूल एवं मौसम फल लाकर किसी तरह अपने जीवन को बचाये हुए हैं, उनके पास पीने के पानी का भी नितांत अभाव है, वे गंदे डबरों का पानी पीने और नहाने के लिए उपयोग कर रहे हैं, इससे भी अनेक बीमारियॉ उनमें फैली हुई हैं, जिससे वे असमय मृत्यु के गाल में समाते जा रहे हैं, इससे आदिवासियों की जनसंख्या में लगातार कमी आ रही है।
मेरे देखे से जो चीज़ मेरी समझ में आई वह यह कि लोगों को सलवा जुडुम में जुड़कर कार्य न करने की सजा उन्हे शासन समर्थित सलवा जुडुम एवं सुरक्षाकर्मियों के द्वारा उनकी जीने की मौलिक स्वतंत्रता छीन कर दी गई है। प्रत्येक व्यक्ति को अपना रहने, जीने, कार्य करने की स्वतंत्रता हमारे संविधान द्वारा दी गई है और प्रत्येक व्यक्ति जहॉ चाहे वहॉ रह सकता है, अपना मनपसंद कार्य चुन सकता है। सलवा जुडुम के सदस्यों एवं सुरक्षाकर्मियों के द्वारा जिस तरह से मासूम आदिवासियों का रसद रोका गया है, उनका कत्ल किया जा रहा है, इससे ऐसा प्रतीत होता है, जैसे कि अब इस देश में संविधान नामक की कोई चीज़ ही नहीं बची। ऐसा व्यवहार दो दुश्मन देशों के बीच में भी नहीं होता हैं। दुश्मनी की भी कुछ मर्यादाएॅ होती हैं, परन्तु यहॉ पर दुश्मनी नहीं दिखती, वरन् ऐसा लगता है, जैसे कि मनुष्यों के द्वारा जंगली जानवरों का शिकार किया जा रहा है। उपरोक्त समस्त घटनाएॅ जिला प्रशासन की देखरेख व सहयोग से हो रही हैं। प्रशासन का यह चेहरा शायद ऐतिहासिक ही होगा कि वह जनता और जनता के बीच फर्क करते हुए कार्य कर रही है और इसे राज्य शासन की शाबाशी प्राप्त है।
जब हम लोग इन ग्रामों के ग्रामीणों से चर्चा कर रहे थे, वे बड़ी ही आशा भरी नज़रों से हमें देखते हुए अपनी तकलीफों का हिसाब दे रहे थे। मुझे लगता है कि अगर मैं अपने घर में रहकर अपना दैनिक जीवन जीना चाहता हूँ, तो यह कोई अपराध नहीं है। इसके लिए मेरा हुक्का-पानी बन्द नहीं किया जा सकता।
उपरोक्त परिस्थितियों के संबंध में मेरा कथन है कि एक तरफ तो हम सभ्य समाज के लोग इन आदिवासियों को अपने पक्ष में करने के पक्षधर हैं और दूसरी तरफ हम उनके साथ एक आम मानव के समान भी व्यवहार नहीं करते, साथ ही उन्हे संविधान प्रदत्त अधिकारों से महरूम कर देते हैं, उन पर जान लेवा हमला करते हैं, उनकी बहू-बेटियों की अस्मत लूटते हैं और उनसे कहते हैं कि ''आइये हम मिलकर नक्सलवाद का सामना करें''। एक तरफ तो हम उनके साथ जानवरों से बद्तर सलूक करते हैं और दूसरी तरफ उनसे हमारा अनुगमन करने की अपेक्षा रखते हैं। क्या हम स्वयं से यह सवाल पूछेंगे कि ''यदि हमारे साथ कोई इस प्रकार का अमानवीय बर्ताव करे तो क्या हम किसी भी परिस्थिति में उसका साथ देने को तैयार हो पाऍगे ?'' शायद प्रत्येक व्यक्ति का जवाब ना में ही होगा, जिसमें थोड़ी बहुत भी सोच सकने की क्षमता ने सिर उठाया है।
इसके अलावा एक तथ्य पर और भी सांख्यिकीय ऑकड़ों की जानकारी बढ़ाने के लिए हमें सोचनी चाहिए। वह यह कि जिला प्रशासन के अनुसार उसने 644 ग्रामों के लगभग 50 हज़ार लोगों को शिविरों में बसाया है। अविभाजित दक्षिण बस्तर, दन्तेवाड़ा में लगभग 1300 ग्राम होते हैं और इन ग्रामो की आबादी लगभग 7 लाख बैठती है। उपरोक्त 644 ग्राम लगभग जिले के आधे ग्राम हैं, जिनकी आबादी भी लगभग जिले के आबादी की आधी होनी चाहिए, परन्तु शिविरों की आबादी लगभग 50 हज़ार है। इससे कुछ सवाल उठते हैं, जिन पर समस्त बुध्दिजीवियों को गंभीरतापूर्वक सोच लेना चाहिए। क्या 644 ग्रामों की आबादी मात्र 50 हज़ार है ?, जिन्हे कि शासन ने शिविरों में बसाया हुआ है। यदि नही तो क्या शासन ने कभी इस बात पर विचार किया कि शेष आबादी का क्या हो रहा है या यह आबादी कहॉ रह रही है ? यदि नही ंतो क्यों ? उपरोक्त प्रश्नों की छानबीन के साथ प्रत्येक लोकतांत्रिक व्यवस्था के समर्थक को इन ग्रामीणों की समस्याओं के समाधान हेतु खड़ा होना चाहिए और तब कहीं इन नि:स्वर लोगों को इनका सुर मिलना संभव हो पायेगा, अन्यथा ये तो वैसे ही कुछ सालों के और मेहमान हैं।

लिंगू मरकाम
ग्राम भेंटकर्ता एवं प्रतिवेदक
दिनॉक 24.05.07 स्थान: कंवलनार, दन्तेवाड़ा
(Thanks for cgnet.in)

Monday, June 4, 2007

असम में उल्फा का तांडव आखिर कब तक चलेगा
राजीव कुमार
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असम में पिछले 6 जनवरी को यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम(ंउल्फा) द्वारा जो भयावह हिंसा का खेल खेला गया, जिसमें इस उग्रवादी संगठन ने करीब सत्तर निर्दोष मजदूरों के उपर ताबड़तोड़ गोलियां वर्षाकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया । इनमें मारे गए ज्यादातर मजदूर चाय बगानों में , ईंट-भट्ठों में काम करने वाले, दूध और मछली बेंचने वाले या दिहाड़ी मजदूरी का काम करते थे। पीढ़ी-दर पीढ़ी असम मे मजदूरी करने के वजह से इन्होंन असम में ही अपना आसियाना बनाना पड़ा।

एक ओर भारत के प्रधानमंत्री व गृहमंत्री प्रवासी भारतीयों को निवेश की आस में उनकी सुरक्षा की पूरी गारंटी दे रहे हैं वहीं दूसरी तरफ उनके इस देश के नागरिक खुद ही सुरक्षित नहीें हैं। हिन्दी भाषी प्रवासी मजदूरों की निर्मम हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम देना उल्फा के लिए कोई नयी बात नहीं है। इससे पहले भी उल्फा ने राज्य में करीब हजारों बेगुनाह गरीब हिन्दी भाषी मजदूरों को क्रूरता पूर्वक मार डाला है। उल्फा का कहना है कि विदेशी घुसपैठियाें से असम को उतना खतरा नहीं है जितना कि भारत के अन्य राज्यों से आए हुए हिंदी भाषी लोगों से है। वैसे असम में हिंसा का दौर कई दशकों से चला आ रहा है। एक इंटरनेट सर्वेक्षण्ा के मुताबिक 1992 से 17 जनवरी, 2007 तक 6260 लोग असम हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं।

जिसमें 3334 आमलोग, 724 सुरक्षाकर्मी और 2202 आतंकवादी हैं। अगर पिछले पन्द्रह वर्षों के आंकड़ों पर नजर डाले तो स्थिति और भयावह हो जाती है :

Casualties of Terrorist Violence in Assam


* आंकड़े जनवरी 17, 2007 तक Source : satp.org

उल्फा राज्य में गैर असामियों का हिंसक तरीकों से विरोध करती रही है। लेकिन एक विचारणीय व गंभीर प्रश्न है कि संप्रभु असम की मांग करने वाला उल्फा एक तरफ अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने वाले हिन्दी भाषियों का विरोध करता है और दूसरी तरफ बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रश्न पर न केवल मौन रहता है बल्कि उसे जायज भी ठहराता है। ऐसा क्यों? इससे पूर्व उल्फा को पूरी तरह ध्वस्त करने के लिए 2003 के दिसंबर में भाजपा सरकार ने भूटान सरकार की सहायता से उल्फा के सारे आतंकवादी ट्रेनिंग कैम्पों को नष्ट करनें में काफी हद तक सफलता हासिल कर ली थी जिसके परिणामस्वरूप उल्फा समाप्ति के कगार पर पहुंच गई थी। परन्तु भाजपा सरकार के बाद कांग्रेस सरकार आई तो उसने उस क्षेत्र में चुनाव में बहुमत हासिल करने के लिए उल्फा से समझौता कर लिया। समझौते के बाद कांग्रेस ने बिना किसी शर्त के सीज फायर की घोषणा कर दी। इस समझौते से उल्फा का दुस्साहस सातवें आसमान पर चढ़ गया। उसे यह आभास हो गया कि वो कुछ भी करे, उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी।

जिस उल्फा का निर्माण विदेशी घुसपैठियों को बाहर निकालने के उद्देश्य से हुआ था, आज वही उल्फा पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई व बांग्लादेश के खुफिया एजेंसी के हाथों का एक मोहरा बनकर रह गया है। पिछले दिनों असम में 70 मजदूरों की हत्या के पीछे इन्हीं दोनों खुफिया एजेंसियों का दबाव था। इस समय उल्फा के कई आतंकवादी प्रशिक्षण केन्द्र बांग्लादेश में चल रहे हैं, जिसका भरपूर फायदा उल्फा उठा रहा है। सन् 2005 के एक आंकड़े के अनुसार असम में उल्फा के करीब तीस से अधिक शिविर हैं। ये शिविर भारतीय भू-भाग में सीमा के नजदीक स्थित हैं, और इन शिविरों में मौजूद उल्फा कैडर सुरक्षाबलों की कारवाई के दौरान म्यांमार व बांग्लादेश भाग जाते हैं।

अत्याधुनिक हथियारों से लैस उल्फा के हजारों कैडर राज्य में हिंसक घटनाओं को अंजाम देनें के लिए सक्रिय रहते हैं। एकतरफ उल्फा शांति वार्ता का श्वांग रचती है तो दूसरी तरफ उल्फा के कैडर असम के अंदर गांव-गांव जाकर सरकार के खिलाफ लोगों के दिलों-दिमाग में जहर घोलते रहते हैं। इतना ही नहीं उल्फा द्वारा राज्य में जमकर धन की उगाही की जाती रही है। यह उगाही व्यवशायियों, फैक्ट्री मालिकों के अलावा उन सरकारी कंपनियों से की जा रही है जिनका व्यापार उत्तर - पूर्व राज्यों में फैला है। यहां तैनात सुरक्षाबलों ने जब-जब उल्फा की कमर तोड़ी है तब-तब उल्फा शांति वार्ताओं का दौर चलाता है। अगर देखा जाय तो यह शांति-वार्ता मृतप्राय हो चुकी उल्फा के लिए एक संजीवनी बूटी का काम करती है। शांतिवार्ता के नाम पर जहां उल्फा नेता अपने संगठन को मजबूत करते हुए हृदय विदारक घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं तो वहीं केंद्र सरकार घटनाओं से अनजान वोट बैंक के चलते मूकदर्शक बनी रहती है। वैसे जब-जब सुरक्षाबल उल्फा कैडरों के प्रति सख्त रवैया अपनाते हैं तब-तब उल्फा व उसके समर्थक गुट वार्ता की दुहाई देनें लगते हैं। खुद की खाल बचाने के लिए उल्फा शांति वार्ता करने में ही अपनी भलाई समझती है। इसके लिए वे कभी इंदिरा गोस्वामी को आगे करते हैं तो कभी किसी गैर सरकारी संगठन को।

सुरक्षाबलों की कार्रवाई रूकवाने या व वार्ता शुरू होने के कुछ समय बाद ही उल्फा फिर अपने पुराने खूनी रास्ते पर लौट आती है। फिर उसके तांडव का शुरू हुआ सिलसिला अब तक जारी है। सुरक्षाकर्मियों के अनुसार पिछले शांति वार्ता शुरू होने के बाद उल्फा ने राज्य में जमकर उगाही की, और अपने को सुसंगठित किया। जिसमें उसने कम से कम पचास करांड़ की रकम वसूली थी। उल्फा के नेता उत्तार-पूर्व में सक्रिय अपने कैडरों के माध्यम से धन उगाही के साथ ही हथियार, गोला-बारूद व मादक द्रव्यों के व्यापार में लगे हैं। साथ ही उल्फा बांग्लादेशी घुसपैठियों को घुसपैठ कराने व संरक्षण प्रदान करने में हरसंभव मददगार है।

दरसल घुसपैठ को सही मायने में देखा जाय, तो यह कांग्रेस सरकार के वोटबैंक की गलत नीतियों व उसके धूर्तता का ही दुष्परिणाम है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों का असंवैधानिक तौर पर आज भी घुसपैठ जारी है। सत्तारूढ़ सरकार ने वोट बैंक पॉलिसी के मद्देनजर ऐसी नीतियां व कानून बनाई जिसके चलते बांग्लादेशी घुसपैठियों का निकालना असंभव हो गया। माननीय उच्चतम न्यायालय ने 15 जुलाई 2005 में अवैध घुसपैठ से जुड़ी आईएमडीटी एक्ट को असंवैधानिक ठहराया। लेकिन केन्द्र के सर पर जूं तक नहीं रेंगी। उसने वोट बैंक की चिंता करते हुए फॉरनर्स एक्ट में ऐसे बदलाव किये जिससे उसमें आईएमडीटी एक्ट की सारी चीजें आ गई। जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वर्तमान की केन्द्र सरकार वोट के लिए देश के भविष्य को भी दांव पर लगा सकती है । घुसपैठ को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट नें दिसम्बर 2006 के फैसले में कहा कि फॉरनर्स एक्ट के तहत नई व्यवस्था चार महीने के भीतर बनाई जाय पर कांग्रेस सरकार सब कुछ जानते हुए भी स्थिति से बिल्कुल अनजान सी बनी हुई है।

उल्फा विदेशों में बैठे अपने आकाओं के आदेशानुसार असम में बांग्लादेशी मुसलमानों को बढ़ाने के साथ-साथ उसे विस्तारित करने की रणनीति को बड़े साफगोई से अंजाम दे रही है। इसमें बांग्लादेश की सोची समझी चाल काम कर रही है। उसके इस चाल में हिन्दी भाषियों,गरीबों और, मजदूरों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि, असम में बांग्लादेशियों की संख्या इतनी ज्यादा हो गई है कि उन पर नियंत्रण करना काफी मुश्किल है। आज बांग्लादेश के कई कट्टरपंथी जेहादी संगठन असम व पश्चिम बंगाल के कई मुस्लिम बहुल इलाकों को अलग करके बृहत्तर बांग्लादेश की मांग करने की तैयारी में जुटे हैं। जो खूनी खेल आईएसआई ने कश्मीर में खेला वही आज पूर्वोत्तर भारत में बांग्लादेश की मदद से दुहरा रही है। उल्फा इसका माध्यम बन रही है। पिछले एक दशक से असम की हालात बद से बदतर हो गए हैं। आज असम की मुस्लिम राजनीति में उफान आना कोई मामूली घटना नहीं है।

मुसलमानों की भलाई का नाटक करने वाली यहां असम की मुस्लिम पार्टियों में अधिकांशत: बांग्लादेशी हैं। पहले असम के शहरों में रिक्शा चलाने वाले, रेहड़ी वाले बिहारी मजदूर होते थे किंतु अब उनकी संख्या घटकर मात्र आधी से भी कम रह गई है। उनके ,द्वारा छोड़े गये कामा पर बांग्लादेशी घुसपैठी अपना कब्जा चुके हैं। ये घुसपैठिये ठीक तरह से असमी भी नहीं बोल पाते जिससे यह साफ जाहिर होता होता है कि ये बांग्लादेशी हैं।

दिन-प्रतिदिन भयावह होती असम की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए कठोर निर्णय लेने की जरूरत है। केंद्र सरकार को अपनी तुष्टिकरण और वोट बैंक की नीति को छोड़कर देश हित में फैसला लेने से असम अन्य राज्यों की तरह शांत रह सकता है। वर्ना वो दिन दूर नहीं जब जम्मू-कश्मीर के तरह ही असम भी भारत के लिए ऐसा नासूर बन जायेगा, जिसका दर्द आने वाले कई सदियों तक हर भारतवासी को सहना पड़ेगा।

Saturday, June 2, 2007

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Friday, June 1, 2007

नक्सलियों ने पूरे देश में आतंक मचा रखा है। उनका सफाया होना चाहिए। मगर किसी निर्दोष को सजा नही मिलनी चाहिए। छत्तीसगढ़ में सलवाजुडुम के नाम पर क्या हो रहा है। यह किसी से छिपी नही है। जरा एक पीड़ित मां के पत्र देखते हैं:

दंतेवाडा से दो माताओं के पत्र
माननीय महोदय जी मैं श्रीमति भीमे पति श्री छन्नू राम ग्राम दोरगुडा विकासखण्ड भैरमगढ जिला दक्षिण बस्तर दंतेवाडा छत्तीसगढ राज्य की एक आदिवासी महिला हूं । नक्सलियों के विरोध में शुरु हुये आंदोलन सलवा जुडुम से मेरे परिवार एवं इसके सदस्यों को काफी हानि पहुंची है । मेरे पुत्र श्री मूडा को सितम्बर 2006 में नक्सली समर्थक कहकर जान से मर डाला गया है एवं मेरे देवर श्री जग्गू एवं उनकी पुत्री फूलमती को जेल में डाल दिया गया है । मेरा पुत्र, देवर व उसकी पुत्री अपना घर छोडकर शिविर में नहीं जाना चाहते थे, इसलिये वे जब कभी भी सलवा जुडुम के सदस्यों को आते हुये देखते थे तो अपने घर से जंगल की ओर भाग जाते थे । एक दिन सितम्बर 2006 को सुरक्षाकर्मी, विशेष पुलिस अधिकारी एवं सलवा जुडुम के सदस्यों ने घर पर आकर उसे घेर लिया एवं उसे मार डाला एवं मेरे देवर व उनकी पुत्री को ले जाकर जेल में डाल दिया । महोदय जी, जब एक बूढी मां की आंखों के सामने उसके जवान पुत्र का कत्ल किसी के द्वारा किया जाता हो और वह खडी होकर देखने के सिवा कुछ नहीं कर सकती तो वह किस मनोदशा में होती है यह कोई मां ही बता सकती है । कानून व्यवस्था को बनाये रखने वालों के द्वारा ही कानून व्यवस्था का उल्लंघन हो रहा है और सरकार का उनको खुला समर्थन प्राप्त है । मेरे पुत्र के दो बच्चे हैं और बहू जवानी में ही विधवा हो चुकी है । हम पति पत्नी दोनो ही बूढे हो चुके हैं और हमारा भविष्य हमारे पुत्र पर टिका हुआ था । अब उसके न होने पर आगे हम अपना जीवन किस तरह चला पायेंगे ? महामहिम जी, मेरे परिवार के दो सदस्यों को न्याय दिलवाने एवं मेरे पुत्र के कत्ल में शामिल सलवा जुडुम के सदस्यों को सज़ा दिलवाने की कृपा करें । मुझे अंदेशा है कि इस प्रार्थना पत्र के देने के पश्चात मुझ पर या मेरे परिवार पर दबावकारी कार्य किये जा सकते हैं अथवा मेरा अपहरण या मुझे झूठे मुकदमें में फसाया जा सकता है । यदि मेरे या मेरे परिवार के साथ ऐसा कुछ होता है तो इसकी सारी ज़िम्मेदारी जिला प्रशासन एवं पुलिस प्रशासन की होगी । धन्यवाद सहित प्रार्थी श्रीमति भीमे पति श्री छन्नू राम ग्राम दोरगुडा विकासखण्ड भैरमगढ जिला दक्षिण बस्तर दंतेवाडा छत्तीसगढ राज्यमहामहिम जी मैं श्रीमति सनकी पति श्री मंगूराम भोगामी ग्राम दोरगुडा विकासखण्ड भैरमगढ जिला दक्षिण बस्तर दंतेवाडा छत्तीसगढ राज्य की एक आदिवासी महिला हूं । मैं शासन द्वारा सलवा जुडुम के समर्थन में नियुक्त विशेष पुलिस अधिकारियों एवं अन्य सुरक्षाकर्मियों द्वारा अपने परिवार के सदस्यों के साथ किये गये अत्याचार से अत्यंत दुखी हूं । मेरा पुत्र जयराम भोगामी एवं पुत्रवधु रामो भोगामी सलवा जुडुम नामक आंदोलन के शुरु होने के बाद दोरगुडा छोडकर अपने पुराने गांव फरसपाल के कोटवार पारा के पुश्तैनी घर में रहने लगे थे क्योंकि सलवा जुडुम के सदस्यों द्वारा हमारे गांव के सभी लोगों को अपने साथ शामिल करने एवं उन्हे शिविर में ले जाने हेतु ज़ोर जबरदस्ती किया जा रहा था और हमें इसका अंजाम पता था कि अपना घर छोडकर शिविर में जाने से किस प्रकार की दिक्कतों का सामना करना पड सकता है । शिविर में न तो रहने की सही व्यवस्था थी और ने ही परिवार के भरण पोषण हेतु आय का कोई ज़रिया था । इसी बात को ध्यान में रखकर मैंने अपने पुत्र और पुत्रवधु से अपने पुश्तैनी गांव के मकान में जाकर रहते हुये वहां की खेती बाडी का कार्य करते रहने को कहा एवं स्वयं दोरगुडा में रहने का निर्णय लिया । दिनांक 24.11.06 को मैंने अपने पुत्र और पुत्रवधु को दोरगुडा बुलाया क्योंकि धान पक चुका था और मैंने उसे काट लिया था एवं उसे समेटकर रखने की आवश्यकता थी । मेरे बुलाने पर पुत्र एवं पुत्रवधु दोनों आये एवं कटे धान को व्यवस्थित रखने का कार्य प्रारम्भ किया । इसी बीच सलवा जुडुम के सदस्य, विशेष पुलिस अधिकारी और अन्य सुरक्षाकर्मी आये और उन्होंने मेरे बेटे को घेर लिया एवं उसे बांधकर मारने पीटने लगे और उन्होने उससे कहा की तू नक्सलियों से मिला हुआ है इसीलिये तू इतने दिन से नहीं दिख रहा था । इस पर उसने जवाब दिया कि मैं अपने पुश्तैनी गांव में था एवं वहां पर रहकर खेती बाडी का काम देख रहा था एवं एक दो दिन पश्चात मैं आप लोगों से मिलने शिविर में आने वाला था । परंतु उन लोगों ने उसकी एक बात नहीं मानी, उसके हाथ पीछे बांधकर डंडों और लात घूंसों से बहुत बहुत मारा । इस पर मेरी पुत्र वधु ने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उसे भी खूब पीटा गया । इसके बाद वे सभी मेरे पुत्र को घसीटते हुये मिरतुर गांव के थाने में लेकर गये एवं वहां पर भी उसकी खूब पिटाई की गई । इस पिटाई से उसके अस्थि पंजर के टूटने की आशंका है एवं उसके शरीर के अंदरूनी भागों को काफी नुकसान पहुंचा है एवं लगभग 2 सप्ताह बीत जाने के बाद भी हिलने डुलने की स्थिति में नहीं है । उसे वर्तमान में थाने में ही बन्द करके रखा गया है । इसके अलावा मुझे भी पीटा गया, जिससे मेरे सीने एवं अस्थिपंजर में भयंकर दर्द हो रहा है । महामहिम जी, मेरे परिवार के सदस्यों को बेवजह प्रताडित किया गया है एवं मेरे पुत्र को थाने में बन्द करके रखा हुआ है । यह एक भयावह स्थिति है कि सलवा जुडुम नामक इस आंदोलन के चलते हम जैसे गरीब लोगों का साथ देने के लिये कोई नहीं है । मैं यह प्रार्थना पत्र आपके पास न्याय की आशा के साथ भेज रही हूं । कृपया मेरे परिवार के सदस्यों को न्याय दिलाने की कृपा करें । मुझे अंदेशा है कि इस प्रार्थना पत्र के देने के पश्चात मुझ पर या मेरे परिवार पर दबावकारी कार्य किये जा सकते हैं अथवा मेरा अपहरण या मुझे झूठे मुकदमें में फसाया जा सकता है । यदि मेरे या मेरे परिवार के साथ ऐसा कुछ होता है तो इसकी सारी ज़िम्मेदारी जिला प्रशासन एवं पुलिस प्रशासन की होगी । धन्यवाद सहित श्रीमति सनकी पति श्री मंगूराम भोगामी ग्राम दोरगुडा विकासखण्ड भैरमगढ जिला दक्षिण बस्तर दंतेवाडा छत्तीसगढ राज्य( मूल पत्र की फोटोकॉपी छत्तीसगढ नेट के पास सुरक्षित)
बस्तर का बलात्कार...
विकल्प ब्यौहार
अब मन बहुत दुखी है। राष्ट्रीय महिला संगठन की एक रिपोर्ट का हिंदी अनुवाद करते हाथ- पैर कांपने लगे थे। क्या एक इनसान इस हद तक गिर सकता है? हमारी आदिवासी मां-बहनों के साथ ऐसा सुलूक ! वह भी हमारी चुनी सरकार के पूरे संरक्षण में। नहीं! ऐसा नहीं होना चाहिए। यह तो घोर पाप है। रावण के राज्य में भी महिलाओं के साथ ऐसा नहीं होता होगा।
एक 10 साल की बच्ची के साथ नगा बटालियन के जवान एक सप्ताह तक सामूहिक बलात्कार करते रहे और उसकी रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई गई। उसके टुकडे-टुकडे कर फेंक दिया, जालिमों ने और हम... ऐसी चुप्पी आखिर कब तक ? कोई जल्द ही आपके और मेरे घर दस्तक देने आता होगा।
दंतेवाड़ा जिले में बड़ी संख्या में आदिवासी महिलाओं जो वास्तव में छत्तीसगढ़ महतारी हैं, के साथ जो सुलूक किया जा रहा है, उसका परिणाम आने वाले समय में ठीक नहीं होगा। नक्सलियों से लड़ने के लिए स्थानीय पुलिस की नपुंसकता के कारण ही राज्य सरकार को नगालैंड और मिजोरम से जवानों को 'आयात' करना पड़ा है।
पहले तो सिर्फ नक्सली ही आदिवासियों का पेट फाड़ा करते थे अब ये नगा के जवान बुला लिए गए हैं, ताकि वे वहां की गर्भवती महिलाओं का पेट चीर कर भ्रूण निकाल सके। इससे सरकार को दो-दो फायदे जो हैं, एक यह कि आगे फिर कोई नक्सली बनने वाला नहीं बचेगा और दूसरा यह कि कोई बिरसा- मुंडा पैदा नहीं होगा।
रायपुर में ही मिजोरम के जवानों ने अपनी औकात दिखा दी। यह समाचार दबी कलम छप ही गया कि किस तरह मिजो जवानों ने अपने एक दिन के माना कैंप में शराब और लड़कियों की मांग की थी। कुछ स्थानीय महिलाओं ने इसकी शिकायत वहीं के अधिकारियों से की थी। कुछ समय के लिए राजधानी के पास ही मिजो जवानों का आतंक छा गया था। इतना ही नहीं उन जवानों ने माना के कुछ दुकानदारों से फोकट में खाने का सामान भी मांगा था। यह था प्रदेश में मिजो जवानों का पहला कदम।
अब हमारी सरकार का जवाबी कदम पढिए। इसकी शिकायत होने पर अधिकारियों ने कहा कि कल ही उन्हें बस्तर रवाना कर दिया जाएगा। वाह री मेरी सरकार!! मान गए। अब मिजो जवानों को अपनी वासना की पूर्ति के लिए रायपुर की लड़कियों को मांगने की जरूरत नहीं पड़ेगी। अब तो उन्हें बस्तर की दर्जनों आदिवासी लड़कियां मिल जाएंगी, वह भी बिना किसी विरोध के। उनके लिए शिविरों में पहले से ही पूरी व्यवस्था जो कर ली है आपने।
हमारी बहनों को छोड़ दो सरकार!! रायपुर के किसी बड़े घराने में पैदा नहीं होने की इतनी बड़ी सजा मत दो उन्हें।
यह बात तो पता थी कि वहां कुछ लड़कियां भी विशेष पुलिस अधिकारी बनी हैं। अब तक जो जानकारी मिलती रही उसके मुताबिक वही लड़कियां एसपीओ बन रहीं हैं जो नक्सलियों के हाथों अपने परिजनों को खो चुकी हैं। पहले यह सुनकर बड़ा गर्व होता था कि चलो छत्तीसगढ़ की हमारी बेटियां इतनी बहादुर तो हैं, कि अपने दुश्मनों के खिलाफ बंदूक भी उठा सकती हैं। लेकिन यदि रिपोर्ट की मानें तो यह सारी बातें कोरी बकवास ही निकलीं।
जिन परिस्थितियों में एक 18 साल से कम उम्र की लड़की एसपीओ बनी उसकी कहानी बताने की जरूरत नहीं। लेकिन एसपीओ बनी लड़कियों का क्या हाल कर रखा है, सोच कर शरीर कांप जाता है।
दंतेवाड़ा जिला पूरी तरह से नक्सल प्रभावित है और वहां थानों में यदा कदा नक्सलियों के हमले होते रहते हैं। राज्य पुलिस व सी.आर.पी.एफ. के जवान हमले के समय तो थाने में घुस जाते हैं और अपने हाथ में बंदूक लिए ये बच्चियां व बच्चे एस.पी.ओ. का बैज लगाए उनसे मोर्चा लेते हैं। यदि किस्मत से कोई नक्सली मार दिया जाता है, चाहे गश्त में भी, जहां यही स्थानीय एस.पी.ओ. सामने रहते हैं, तो फिर इनके जारी समाचार होते हैं- फलां आई.जी के निर्देशन में, एस.पी. की अगुवाई में हमारे जांबाज जावानों ने एक नक्सली को मार गिराया। फलां-फलां समान जब्त किया गया, इतने राउंड गोली चली और जवानों की लंबी-चौड़ी तारीफ के बाद अंत में एक लाइन भी जोड़ दी जाती है कि, इस मुठभेड़ में एक एसपीओ भी शहीद हो गया, जिसे सलामी दी गई।
एर्राबोर की घटना की जांच अब तक हो रही है। उसी का उदाहरण लें तो इस घटना ने यह जग जाहिर कर दिया कि पुलिस नाकाम है, और सफाई देने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकती। सरकार ने शेरों से लड़ने बिल्लियों का सहारा लिया जो बेकार साबित हुए, तभी तो नगा और मिजो जवान बुलाए गए हैं। दो चक्की के बीच फंसी हमारी बस्तर की मां-बहनों की चिंता किसी को नहीं है।
चक्की चल रही है और खून की धारा बह रही है, और हम यह देख रहे हैं कि इस खून की उम्र कितनी है। आंख में पट्टी बांधकर नेत्रहीनों का दर्द महसूस करने वाले हमारे मुखिया क्या कभी बस्तर जाकर उन निरीह आदिवासी महिलाओं का दर्द उन्हीं की तरह महसूस कर पाएंगे।
सरकार का दावा है कि शिविरों में सब कुछ बहुत बढिय़ा हो रहा है। तो भाई जंगल में मोर नाचा किसने देखा? हमारे कुछ साथी पत्रकार बताते हैं कि मीडिया को साम, दाम, दंड और भेद की नीति अपनाते हुए चुप कर दिया गया है। एक भी समाचार सलवा जुड़ूम के खिलाफ छपी तो फिर समझ लीजिए कि आपकी 'पत्रकारिता' तो गई तेल लेने। या तो आपको इलाका छोड़ना पड़ेगा या तो फिर कलम। कुछ दिलेर कलम नहीं छोड़ते तो फिर उनके एनकाउंटर की पूरी आशंका बनी रहती है।
यहां यह स्पष्ट करना जरूरी है कि पुलिस के अत्याचार और सलवा-जुड़ूम के खिलाफ लिखने वालों को नक्सलियों का साथी घोषित कर देना कोई अच्छी बात नहीं है। छत्तीसगढ़ के कुछ अखबारों ने पुलिसिया अत्याचार के बीच चक्की के दूसरे पाटे को भी जनता के सामने लाया है। नक्सलियों द्वारा की गई हत्याएं और उनका आदिवासी विरोध, नक्सलियों की बर्बरता भी उतनी ही संजीदगी के साथ छापी जाती हैं। लेकिन अब करें क्या गलत कामों में हमें नक्सलियों का पलड़ा कुछ हल्का ही मिलता रहा है।
पुलिस की शहर में क्या इज़्जत है, वह तो सभी देखते ही रहते हैं। हर वह बच्चा जो होश संभालने लगता है, यह सुनने लग जाता है कि रुपए के लिए चालान किए जाते हैं और रुपए के लिए पुलिस अपने एरिया की दुकानों से हफ्ता वसूलती है।
राष्ट्रीय महिला संगठनों की रिपोर्ट में एक और चौकाने वाली बात सामने आई कि वहां के शिविरों में कुछ ऐसी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता हैं जो जबरिया वहां रखी गईं हैं। ये बच्चों को पढ़ाती हैं। शिक्षिका हैं। डरी-सहमी सी शिक्षिकाएं जिनका बुझा चेहरा और डर से कांपते हाथ बस्तर की नई पीढ़ी गढ़ रहे हैं। शिविरों में विधवाओं की एक बड़ी संख्या है, जिनकी सुरक्षा करने वाला वहां कोई नहीं। जो सुरक्ष करने वाले हैं उनके बारे में खबर मिलती है कि वे उनकी ही इज़्जत से खेल रहे हैं। उन्हें घर नहीं जाने दिया जाता।
अब सरकार का एक बेहतरीन तर्क पढिए- 'नक्सलियों से ग्रामीणों की सुरक्शा के लिए उन्हें मुख्य मार्गों के किनारे शिविर बनाकर रखा जा रहा है।' उधर मुट्ठीभर नक्सली और इधर बटालियन पर बटालियन फिर् भी सुरक्षा के लिए एक जगह जानवरों की तरह ठूंस देना हास्यास्पद है। गांव खाली क्यों कराते हो, गांव को आबाद रखो और लड़ो नक्सलियों से! कल रायपुर में नक्सलियों की वारदातें शुरू हो जाएंगी तो क्या यहां से दूर एक कैंप बनाकर सबको रख दोगे?
अरे सरकार! कुछ तो रहम करो। कम से कम हमारी मां-बहनों को तो छोड़ दो। आप नक्सलियों से लड़ो, हमारा पूरा समर्थन आपको है, लेकिन बस्तर का बलात्कार तो मत करो। ऐसे में हमारा साथ नहीं मिलने वाला। नगा और मिजो जवानों को नियंत्रण में रखो। नक्सलियों के खिलाफ लड़ने के लिए एक सकारातमक माहौल बनाओ। वहां की विषमताओं को दूर करो। वहां की मां-बहनों की इज़्जत करो। अपनी पुलिस को विश्वसनीय तो बनाओ, फिर देखो कैसे खत्म होता है नक्सलवाद। इसके लिए किसी बाहरी पुलिस अधिकारी की जरूरत नहीं। अपनों में भी बहुत दम है, यदि उन्हें तैयार कर सको तो। ( With thanks from www.itwariakhbar.com )