Thursday, December 31, 2009

घुट-घुट कर जी रहा कानू सान्याल

ठ्ठमधुरेश, हाथीघिसा (पश्चिम बंगाल) विचारधारा जीवन को एक दायरे में बांधती है और जीने का जोश देती है, लेकिन जब वह भटक जाती है, तो जी का जंजाल बन जाती है। झंडाबरदारों को तो दुर्दिन दिखाती ही है, विकृति बन उस समाज को भी पेरती है, जो उसके केंद्रबिंदु में होता है। कुछ ऐसा ही हुआ है नक्सलवादी विचारधारा के साथ। कम से कम कानू सान्याल को देखकर तो यही लगता है। कभी देश-समाज को बदलने का सपना देखने वाले शख्स को हर उस व्यक्ति से शिकायत है, जिससे उसने उम्मीद बांधी थी। वैचारिक रिश्ते तो साथ छोड़ गए, अंतत: खून का रिश्ता ही काम आ रहा है। भाई के खर्च पर 81 साल के कानू की जिंदगी की गाड़ी जैसे-तैसे खिंच रही है, अब कोई हाल-खबर लेने भी नहीं आता है। पश्चिम बंगाल के एक गांव की झोपड़ी में नक्सलवाद का कथा पुरुष घुट-घुटकर मर रहा है। भाई पैसा न दे, तो कानू सान्याल सांस चालू रखने वाली दवा भी न खा सकें। ठीक बगल की झोपड़ी में रोज मौत की बुलाती एक औरत, साथियों की चरम दगाबाजी की निशानी है। फिर भी दोनों को कोई मलाल नहीं; मदद की अपेक्षा भी नहीं। और ऐसे ही कई और गुणों के चलते दोनों जनता के लड़ाकों के लिए नसीहत हैं। दोनों गवाह हैं कि कैसे और क्यों कोई आंदोलन बीच रास्ते से भटक जाता है; जनता बेच दी जाती है? वाकई, कानू सान्याल और लखी होना मुश्किल है। अभी के दौर में तो असंभव। कानू दा, नाम के मोहताज नहीं हैं। मगर लखी को हाथीघिसा पहुंचकर ही जाना। वे भारत में नक्सलवादी आंदोलन के प्रारंभिक कमानदारों में एक जंगल संथाल की बेवा हैं। जंगल, नक्सलबाड़ी का लड़ाका। चारु मजूमदार, खोखोन मजूमदार, सोरेन बोस, कानू सान्याल का हमकदम। खैर, कानू दा 81 साल के हो चुके हैं। बीमार हैं। दो अखबार लेते हैं। सामने के खेत, खुला आकाश, उड़ते पंछी, चरते जानवर, चिथड़ों में लिपटे नंगे पांव स्कूल जाते नौनिहाल ..,चश्मे के पीछे से सब देखते हैं। कुछ भी तो नहीं बदला! यही उनकी घुटन है। उन्होंने इसी सबको बदलने के लिए भारतीय व्यवस्था को चुनौती दी थी। कई राज्यों की पुलिस तलाशती थी। .. और अब गुटीय लाइन पर अपने भी मिलने नहीं आते। कानू की जिंदगी बड़ी मुश्किल से गुजर रही है। प्रदीप सान्याल (भाई) के पैसे से दवा खरीदी जाती है। चूंकि कार या पेट्रोल की हैसियत नहीं है, सो चाहते हुए भी कहीं निकल नहीं पाते। कानू दा को यह बात बहुत कचोटती है कि कभी साथी रहे लोग या उनकी सरकार (पश्चिम बंगाल का माकपा राज) ने मरणासन्न अवस्था में भी उनकी सुधि नहीं ली। बुद्धदेव भट्टाचार्य (मुख्यमंत्री) सार्वजनिक सभाओं में अक्सर कहते हैं-पश्चिम बंगाल में अब कोई नक्सली नहीं रहा। एक कानू बाबू है। उनको भी हम अपने साथ करना चाहते हैं। यह मुनादी है कि कैसे नक्सल आंदोलन के किरदारों को उनके ही पुराने साथियों (माकपा) ने दबाया, कुचला? ऐसे में सहयोग की अपेक्षा बेकार है। और हम ऐसा करते भी नहीं-कानू दा बोले। झोपड़ी में रह रहे कानू सान्याल बैचलर हैं।
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तार-तार हो गया उल्फा का आधार


तार-तार हो गया उल्फा का आधार

तार-तार हो गया उल्फा का आधार
गुवाहाटी : असम को भारत से अलग करने के ख्वाब के साथ 1979 में बनाया गया यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट आफ असम (उल्फा) इन दिनों उथल-पुथल भरे दौर से गुजर रहा है। अपने आधार की वजह से उल्फा ने पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई के संरक्षण में बांग्लादेश में अपने पांव जमा लिए थे, लेकिन उसे अब वहां बने रहने में दिक्कत हो रही है। पिछले साल शेख हसीना की सरकार की स्थापना, धार्मिक कट्टरवाद और उग्रवाद के विरोध में उठाए गए कदमों और शायद इस एहसास की बदौलत कि अब भारत को और नाराज नहीं किया जा सकता, उस देश में सक्रिय उल्फा तथा दूसरे उग्रवादी संगठन हताशा में सुरक्षित पनाहगाहों की तलाश में हैं। इसलिए उल्फा प्रमुख, परेश बरुआ के चीन पहंुच जाने और बांग्लादेश में मौजूद इस संगठन के सदस्यों के म्यांमार से संरक्षण मिलने की खबरों से हैरानी नहीं होनी चाहिए। लेकिन म्यांमार में भी उन्हें हालात की प्रतिकूलता का अंदाजा होने लगा है। खबर थी कि नवंबर के पहले सप्ताह में म्यांमार आर्मी ने उल्फा के एक कैंप को घेर लिया था और वहां करीब 100 उग्रवादियों पर हमला बोल दिया था। इस पृष्ठभूमि में संगठन के दो शीर्ष नेताओं विदेश सचिव शशधर चौधरी और वित्त सचिव चित्रबन हजारिका की गिरफ्तारी महत्वूपर्ण हो जाती है। बीएसएफ के अनुसार इन दोनों ने त्रिपुरा में आत्मसमर्पण किया था। इससे महज 48 घंटे पहले उल्फा ने दावा किया था कि इन दोनों को 1 नवंबर को ढाका में उनके घरों से गिरफ्तार किया गया था। 7 नवंबर को चीफ जूडिशियल मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने के बाद जब इन दोनों को गुवाहाटी लाया गया, तो उन्होंने मीडिया को बताया कि उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया था बल्कि सादी वर्दी में कुछ लोगों ने उन्हें ढाका में उनके घरों से उठाया था और फिर उन्हें भारत को सौंप दिया था। खैर हकीकत यह है कि दोनों जेल में हैं। यही नहीं इसके कुछ दिन बाद ही उल्फा का चेयरमैन अरबिंद राजखोवा और डिप्टी कमांडर इन चीफ राजू बरुआ की गिरफ्तारी ने तो उल्फा की कमर ही तोड़ दी। उल्फा के लिए यह गठन के 30 साल में सबसे बड़ा झटका था। सवाल उठता है कि अब उल्फा क्या रुख अपनाएगा? जून 2008 से इकतरफा संघर्ष विराम करने वाले वार्ता-समर्थक धड़े के चोटी के एक उल्फा लीडर, मृणाल हजारिका के हवाले से एक अखबार ने लिखा है कि अगर राज्य को पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करने की हमारी मांग पर वे सहमत हो जाते हैं, तो शांति वार्ता शुरू करने का हम आधार तैयार कर सकते हैं। हम समझ चुके हैं कि असम के लिए पूर्ण प्रभुसत्ता की मांग करना व्यावहारिक नहीं है। इसलिए हम, लोगों के हितों को ध्यान में रखते हुए शांति वार्ता के पक्ष में हैं। ऐसे में या तो शशधर-चित्रबन की जोड़ी, शांति वार्ता की बजाए अपने क्रांतिकारी रुख पर कायम रहते हुए जेल जाना पसंद करेंगे, या वे मृणाल हजारिका गुट में शामिल हो जाएंगे और शांति प्रक्रिया को सार्थक बनाएंगे, या फिर वे अपने कानूनी और तथाकथित मानवाधिकार सलाहकारों की मदद से एक नई साजिश के लिए कोई चतुराई भरा कदम उठाएंगे। साथ ही, हो सकता है कि वार्ता-विरोधी धड़ा इन दो लोगों के पकड़े जाने का बदला लेने के लिए अपने परिचित तौर-तरीकों से मासूम स्त्री-पुरुषों और बच्चों को आतंकित करे। ऐसे किसी हमले को रोकने के लिए खुफिया विभाग को कुशलता और सतर्कता का परिचय देना होगा। परेश बरुआ के नेतृत्व वाला गुट यह साबित करने की पुरजोर कोशिश करेगा कि अभी उसमें दम है। अपने शुरूआती सालों में समाज सुधार के अपने स्वरूप से उल्फा ने एक लंबा रास्ता तय करके संगठन के खिलाफ भारतीय सेना के आपरेशन बजरंग और आपरेशन राइनो के बाद 1990 के सालों में असम छोड़कर बांग्लादेश चले जाने के बाद आईएसआई के समर्थन से उसने आतंकवादी नकाब ओढ़ लिया है। इसी प्रकार से असम के लोगों ने भी एक लंबा सफर तय किया है। अब वे उल्फा द्वारा दिखाए गए सपने से दूर होकर उसके आतंकवादी स्वरूप को पहचान चुके हैं, जो आज विदेशी ताकतों के इशारों पर खेल रहा है। (अडनी)
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Wednesday, December 30, 2009

देश को आतंकवाद से ज्यादा छलनी कर रहा नक्सलवाद


देश को आतंकवाद से ज्यादा छलनी कर रहा नक्सलवाद


नई दिल्ली : देश में मुंबई हमले के बाद आतंकवाद से निबटने के लिए अलग तंत्र और कानून बनाने के लिए जोरदार तरीके से कवायद शुरू की गई। शायद इसी कारण इस साल आतंकवाद की कोई बड़ी वारदात सामने नहीं आई। लेकिन देश में दहशत बरकरार रखने में नक्सलियों ने कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। हालत तो यह है कि आतंकवाद पर भी नक्सलवाद भारी पड़ रहा है। सरकार माओवादियों को लेकर लेकर चाहे जो दावे कर रही हो पर वास्तविकता यह है कि वह माओवादियों पर काबू पाने में असफल रही है। नक्सली हिंसा में इस साल 31 अक्टूबर तक 742 लोग मारे जा चुके हैं। यह संख्या पिछले साल मारे गए लोगों से कहीं ज्यादा है। सरकार के आंकड़ों पर यकीन करें तो नक्सलवादी आतंकवादियों से चार गुना ज्यादा घातक सिद्घ हो रहे हैं। पिछले दिनों गृहमंत्री पी. चिदंबरम राज्यसभा में यह कह रहे थे कि किसी भी मुद्दे पर नक्सलियों से बातचीत करने को तैयार हैं तो उसी समय उनके मंत्रालय द्वारा कुछ आंकड़े सदन में पेश किए गए, जो कि काफी चौंकाने वाले हैं। एक सवाल के जवाब में गृह राज्यमंत्री अजय माकन द्वारा दिए गए इन आंकड़ों के मुताबिक इस साल 31 अक्टूबर तक नक्सल प्रभावित राज्यों में नक्सली हमलों में 742 सुरक्षाकर्मी और आम नागरिक मारे गए हैं। 2008 में यह संख्या 721 थी। पूर्वोत्तर में पिछले साल 572 आम नागरिक और सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। सुरक्षाबलों ने इस दौरान 640 नक्सलियों को मार गिराया। गृह मंत्रालय के आंकड़ों को मानें तो जम्मू कश्मीर में आतंकवाद पर अंकुश लगाने में सुरक्षा बल काफी हद तक कामयाब रहे हैं। इस साल उक्त अवधि में 123 आम नागरिक और सुरक्षाकर्मियों की जानें गईं हैं जबकि सुरक्षा बलों ने 212 आतंकियों को मार गिराया है। पिछले साल 166 आम नागरिक और सुरक्षाकर्मी मारे गए थे और 339 आतंकियों को सुरक्षा बलों ने मारा था। कई महीनों तक चुपचाप तैयारी करने के बाद आखिर केंद्र सरकार ने नक्सलियों के खिलाफ अपना अब तक का सबसे बड़ा अभियान छेड़ दिया है। सूत्रों के अनुसार फिलहाल यह अभियान छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र तक सीमित रहेगा। दोनों राज्यों में सीआरपीएफ, बीएसएफ और भारत-तिब्बत सीमा पुलिस के 45 हजार जवान भेजे गए हैं। बाद में इससे भी ज्यादा आक्रामक और बेहतर समन्वय वाला अभियान झारखंड और उड़ीसा में छेड़ा जाएगा। छत्तीसगढ़ में सीआरपीएफ के सबसे ज्यादा 37 हजार जवान तैनात किए जा रहे हैं। शुरुआत में 25 हजार जवान भेजे गए हैं। बाद में कश्मीर से हटाकर 12 हजार जवानों को विशेष ट्रेनिंग देकर राज्य में भेजा जाएगा। उम्मीद की जाती है कि इस सबसे बड़ी संख्या में सरकार सख्ती से निपटेगी। (अडनी)

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