Monday, June 4, 2007

असम में उल्फा का तांडव आखिर कब तक चलेगा
राजीव कुमार
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असम में पिछले 6 जनवरी को यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम(ंउल्फा) द्वारा जो भयावह हिंसा का खेल खेला गया, जिसमें इस उग्रवादी संगठन ने करीब सत्तर निर्दोष मजदूरों के उपर ताबड़तोड़ गोलियां वर्षाकर उन्हें मौत के घाट उतार दिया । इनमें मारे गए ज्यादातर मजदूर चाय बगानों में , ईंट-भट्ठों में काम करने वाले, दूध और मछली बेंचने वाले या दिहाड़ी मजदूरी का काम करते थे। पीढ़ी-दर पीढ़ी असम मे मजदूरी करने के वजह से इन्होंन असम में ही अपना आसियाना बनाना पड़ा।

एक ओर भारत के प्रधानमंत्री व गृहमंत्री प्रवासी भारतीयों को निवेश की आस में उनकी सुरक्षा की पूरी गारंटी दे रहे हैं वहीं दूसरी तरफ उनके इस देश के नागरिक खुद ही सुरक्षित नहीें हैं। हिन्दी भाषी प्रवासी मजदूरों की निर्मम हत्या जैसी घटनाओं को अंजाम देना उल्फा के लिए कोई नयी बात नहीं है। इससे पहले भी उल्फा ने राज्य में करीब हजारों बेगुनाह गरीब हिन्दी भाषी मजदूरों को क्रूरता पूर्वक मार डाला है। उल्फा का कहना है कि विदेशी घुसपैठियाें से असम को उतना खतरा नहीं है जितना कि भारत के अन्य राज्यों से आए हुए हिंदी भाषी लोगों से है। वैसे असम में हिंसा का दौर कई दशकों से चला आ रहा है। एक इंटरनेट सर्वेक्षण्ा के मुताबिक 1992 से 17 जनवरी, 2007 तक 6260 लोग असम हिंसा की भेंट चढ़ चुके हैं।

जिसमें 3334 आमलोग, 724 सुरक्षाकर्मी और 2202 आतंकवादी हैं। अगर पिछले पन्द्रह वर्षों के आंकड़ों पर नजर डाले तो स्थिति और भयावह हो जाती है :

Casualties of Terrorist Violence in Assam


* आंकड़े जनवरी 17, 2007 तक Source : satp.org

उल्फा राज्य में गैर असामियों का हिंसक तरीकों से विरोध करती रही है। लेकिन एक विचारणीय व गंभीर प्रश्न है कि संप्रभु असम की मांग करने वाला उल्फा एक तरफ अर्थव्यवस्था को मजबूती प्रदान करने वाले हिन्दी भाषियों का विरोध करता है और दूसरी तरफ बांग्लादेशी घुसपैठियों के प्रश्न पर न केवल मौन रहता है बल्कि उसे जायज भी ठहराता है। ऐसा क्यों? इससे पूर्व उल्फा को पूरी तरह ध्वस्त करने के लिए 2003 के दिसंबर में भाजपा सरकार ने भूटान सरकार की सहायता से उल्फा के सारे आतंकवादी ट्रेनिंग कैम्पों को नष्ट करनें में काफी हद तक सफलता हासिल कर ली थी जिसके परिणामस्वरूप उल्फा समाप्ति के कगार पर पहुंच गई थी। परन्तु भाजपा सरकार के बाद कांग्रेस सरकार आई तो उसने उस क्षेत्र में चुनाव में बहुमत हासिल करने के लिए उल्फा से समझौता कर लिया। समझौते के बाद कांग्रेस ने बिना किसी शर्त के सीज फायर की घोषणा कर दी। इस समझौते से उल्फा का दुस्साहस सातवें आसमान पर चढ़ गया। उसे यह आभास हो गया कि वो कुछ भी करे, उसके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी।

जिस उल्फा का निर्माण विदेशी घुसपैठियों को बाहर निकालने के उद्देश्य से हुआ था, आज वही उल्फा पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आईएसआई व बांग्लादेश के खुफिया एजेंसी के हाथों का एक मोहरा बनकर रह गया है। पिछले दिनों असम में 70 मजदूरों की हत्या के पीछे इन्हीं दोनों खुफिया एजेंसियों का दबाव था। इस समय उल्फा के कई आतंकवादी प्रशिक्षण केन्द्र बांग्लादेश में चल रहे हैं, जिसका भरपूर फायदा उल्फा उठा रहा है। सन् 2005 के एक आंकड़े के अनुसार असम में उल्फा के करीब तीस से अधिक शिविर हैं। ये शिविर भारतीय भू-भाग में सीमा के नजदीक स्थित हैं, और इन शिविरों में मौजूद उल्फा कैडर सुरक्षाबलों की कारवाई के दौरान म्यांमार व बांग्लादेश भाग जाते हैं।

अत्याधुनिक हथियारों से लैस उल्फा के हजारों कैडर राज्य में हिंसक घटनाओं को अंजाम देनें के लिए सक्रिय रहते हैं। एकतरफ उल्फा शांति वार्ता का श्वांग रचती है तो दूसरी तरफ उल्फा के कैडर असम के अंदर गांव-गांव जाकर सरकार के खिलाफ लोगों के दिलों-दिमाग में जहर घोलते रहते हैं। इतना ही नहीं उल्फा द्वारा राज्य में जमकर धन की उगाही की जाती रही है। यह उगाही व्यवशायियों, फैक्ट्री मालिकों के अलावा उन सरकारी कंपनियों से की जा रही है जिनका व्यापार उत्तर - पूर्व राज्यों में फैला है। यहां तैनात सुरक्षाबलों ने जब-जब उल्फा की कमर तोड़ी है तब-तब उल्फा शांति वार्ताओं का दौर चलाता है। अगर देखा जाय तो यह शांति-वार्ता मृतप्राय हो चुकी उल्फा के लिए एक संजीवनी बूटी का काम करती है। शांतिवार्ता के नाम पर जहां उल्फा नेता अपने संगठन को मजबूत करते हुए हृदय विदारक घटनाओं को अंजाम देते रहते हैं तो वहीं केंद्र सरकार घटनाओं से अनजान वोट बैंक के चलते मूकदर्शक बनी रहती है। वैसे जब-जब सुरक्षाबल उल्फा कैडरों के प्रति सख्त रवैया अपनाते हैं तब-तब उल्फा व उसके समर्थक गुट वार्ता की दुहाई देनें लगते हैं। खुद की खाल बचाने के लिए उल्फा शांति वार्ता करने में ही अपनी भलाई समझती है। इसके लिए वे कभी इंदिरा गोस्वामी को आगे करते हैं तो कभी किसी गैर सरकारी संगठन को।

सुरक्षाबलों की कार्रवाई रूकवाने या व वार्ता शुरू होने के कुछ समय बाद ही उल्फा फिर अपने पुराने खूनी रास्ते पर लौट आती है। फिर उसके तांडव का शुरू हुआ सिलसिला अब तक जारी है। सुरक्षाकर्मियों के अनुसार पिछले शांति वार्ता शुरू होने के बाद उल्फा ने राज्य में जमकर उगाही की, और अपने को सुसंगठित किया। जिसमें उसने कम से कम पचास करांड़ की रकम वसूली थी। उल्फा के नेता उत्तार-पूर्व में सक्रिय अपने कैडरों के माध्यम से धन उगाही के साथ ही हथियार, गोला-बारूद व मादक द्रव्यों के व्यापार में लगे हैं। साथ ही उल्फा बांग्लादेशी घुसपैठियों को घुसपैठ कराने व संरक्षण प्रदान करने में हरसंभव मददगार है।

दरसल घुसपैठ को सही मायने में देखा जाय, तो यह कांग्रेस सरकार के वोटबैंक की गलत नीतियों व उसके धूर्तता का ही दुष्परिणाम है कि बांग्लादेशी घुसपैठियों का असंवैधानिक तौर पर आज भी घुसपैठ जारी है। सत्तारूढ़ सरकार ने वोट बैंक पॉलिसी के मद्देनजर ऐसी नीतियां व कानून बनाई जिसके चलते बांग्लादेशी घुसपैठियों का निकालना असंभव हो गया। माननीय उच्चतम न्यायालय ने 15 जुलाई 2005 में अवैध घुसपैठ से जुड़ी आईएमडीटी एक्ट को असंवैधानिक ठहराया। लेकिन केन्द्र के सर पर जूं तक नहीं रेंगी। उसने वोट बैंक की चिंता करते हुए फॉरनर्स एक्ट में ऐसे बदलाव किये जिससे उसमें आईएमडीटी एक्ट की सारी चीजें आ गई। जिससे यह स्पष्ट हो गया कि वर्तमान की केन्द्र सरकार वोट के लिए देश के भविष्य को भी दांव पर लगा सकती है । घुसपैठ को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट नें दिसम्बर 2006 के फैसले में कहा कि फॉरनर्स एक्ट के तहत नई व्यवस्था चार महीने के भीतर बनाई जाय पर कांग्रेस सरकार सब कुछ जानते हुए भी स्थिति से बिल्कुल अनजान सी बनी हुई है।

उल्फा विदेशों में बैठे अपने आकाओं के आदेशानुसार असम में बांग्लादेशी मुसलमानों को बढ़ाने के साथ-साथ उसे विस्तारित करने की रणनीति को बड़े साफगोई से अंजाम दे रही है। इसमें बांग्लादेश की सोची समझी चाल काम कर रही है। उसके इस चाल में हिन्दी भाषियों,गरीबों और, मजदूरों को बलि का बकरा बनाया जा रहा है। आज स्थिति यह है कि, असम में बांग्लादेशियों की संख्या इतनी ज्यादा हो गई है कि उन पर नियंत्रण करना काफी मुश्किल है। आज बांग्लादेश के कई कट्टरपंथी जेहादी संगठन असम व पश्चिम बंगाल के कई मुस्लिम बहुल इलाकों को अलग करके बृहत्तर बांग्लादेश की मांग करने की तैयारी में जुटे हैं। जो खूनी खेल आईएसआई ने कश्मीर में खेला वही आज पूर्वोत्तर भारत में बांग्लादेश की मदद से दुहरा रही है। उल्फा इसका माध्यम बन रही है। पिछले एक दशक से असम की हालात बद से बदतर हो गए हैं। आज असम की मुस्लिम राजनीति में उफान आना कोई मामूली घटना नहीं है।

मुसलमानों की भलाई का नाटक करने वाली यहां असम की मुस्लिम पार्टियों में अधिकांशत: बांग्लादेशी हैं। पहले असम के शहरों में रिक्शा चलाने वाले, रेहड़ी वाले बिहारी मजदूर होते थे किंतु अब उनकी संख्या घटकर मात्र आधी से भी कम रह गई है। उनके ,द्वारा छोड़े गये कामा पर बांग्लादेशी घुसपैठी अपना कब्जा चुके हैं। ये घुसपैठिये ठीक तरह से असमी भी नहीं बोल पाते जिससे यह साफ जाहिर होता होता है कि ये बांग्लादेशी हैं।

दिन-प्रतिदिन भयावह होती असम की स्थिति को नियंत्रित करने के लिए कठोर निर्णय लेने की जरूरत है। केंद्र सरकार को अपनी तुष्टिकरण और वोट बैंक की नीति को छोड़कर देश हित में फैसला लेने से असम अन्य राज्यों की तरह शांत रह सकता है। वर्ना वो दिन दूर नहीं जब जम्मू-कश्मीर के तरह ही असम भी भारत के लिए ऐसा नासूर बन जायेगा, जिसका दर्द आने वाले कई सदियों तक हर भारतवासी को सहना पड़ेगा।

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