Tuesday, February 16, 2010

दिग्विजय की वोट यात्रा

26/11 के बाद विगत शनिवार को पुणे के जर्मन बेकरी रेस्त्रा में हुए आतंकी हमले में 9 लोगों की जान चली गई और 45 घायल हो गए। मृतकों में चार विदेशी महिलाएं हैं। सन 2001 के 9/11 के आतंकी हमले के बाद अमेरिका में एक भी आतंकवादी घटना नहीं हुई। इसके विपरीत भारत में यह सिलसिला थम नहीं रहा। क्यों?

क्या हम इस तथ्य से इनकार कर सकते हैं कि पुणे की यह दुखद घटना काग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की आजमगढ़ की 'तीर्थयात्रा' के कुछ दिनों बाद घटित हुई है? इस बीच समाचारपत्रों में यह चर्चा भी थी कि युवराज राहुल गाधी भी आजमगढ़ दर्शन का कार्यक्रम बना रहे हैं।

दिल्ली के जामिया नगर स्थित बटला हाउस में आतंकवादियों के साथ मुठभेड़ के बाद उत्तर प्रदेश का आजमगढ़ देश की विभिन्न जाच एजेंसियों के निशाने पर है और खोजबीन से इस बात की पुष्टि भी हो चुकी है कि देश में आतंकवाद के तार आजमगढ़ से गहरे जुड़े हैं। पिछले कुछ वषरें में उत्तर प्रदेश, खासकर आजमगढ़ और पूर्वी उत्तर प्रदेश के आसपास का क्षेत्र जिहादियों का गढ़ बनता जा रहा है, जो दाऊद के गुगरें से लेकर कई आतंकवादियों के सुरक्षित ठिकाने के रूप में सामने आ रहा है। किंतु बटला हाउस मुठभेड़ के बाद से ही मुस्लिम समाज के कट्टरपंथी इसे फर्जी मुठभेड़ बताकर देश की सुरक्षा एजेंसियों पर सवाल खड़ा कर रहे हैं। मुस्लिम वोट बैंक पर गिद्ध दृष्टि रखने वाले राजनीतिक दल भी उनके साथ हैं। इस कथित मुठभेड़ के खिलाफ आजमगढ़ के कट्टरपंथियों की फौज एक पूरी ट्रेन को ही 'उलेमा एक्सप्रेस' बनाकर दिल्ली आ धमकी थी।

बटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादी आजमगढ़ के संजरपुर के निवासी थे। बाद में इस गाव से कई अन्य संदिग्धों की गिरफ्तारी भी हुई। इससे पूर्व अहमदाबाद बम धमाकों के सिलसिले में आजमगढ़ के ही एक मौलाना, अबू बशर को गिरफ्तार किया गया था। बशर की गिरफ्तारी के बाद उसके घर मातमपुर्सी के लिए सपा-बसपा और काग्रेस में होड़ लग गई थी। यह होड़ बटला हाउस मुठभेड़ के बाद और तेज हुई है। इसी सिलसिले में पिछले दिनों काग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह आजमगढ़ पहुंचे थे। वे कथित फर्जी मुठभेड़ में मारे गए युवकों के परिजनों से मिले और उसके बाद लखनऊ में आयोजित एक प्रेस कांफ्रेंस में यहा तक कहा कि 'न्याय में देरी, न्याय न देने के समान है।' जब सत्ताधारी दल राष्ट्रहितों की कीमत पर वोटबैंक की राजनीति करेगा तो स्वाभाविक है कि इससे सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल गिरेगा और राष्ट्रविरोधी शक्तियों को ताकत मिलेगी।

प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह और गृहमंत्री पी चिदंबरम आतंकवाद के खात्मे को सरकार की बड़ी प्राथमिकता बताते हैं, दूसरी ओर काग्रेस का वरिष्ठ नेता आतंकवादियों के साथ हुई मुठभेड़ पर ऐसे समय में सवाल खड़ा करता है, जब न केवल साक्ष्य, बल्कि उसी मुठभेड़ का हिस्सा रहा एक आतंकवादी पुलिस की गिरफ्त में हो और पूछताछ में मारे जाने वालों के आतंकी गतिविधियों में शामिल होने की पुष्टि कर रहा हो। क्या इस दोमुंहेपन की नीति से आतंकवाद का सामना किया जा सकता है?

लखनऊ के संवाददाता सम्मेलन में दिग्विजय सिंह ने जो कहा, उससे पलटते हुए दिल्ली में यह कहा कि वह मुठभेड़ को फर्जी बताने की स्थिति में नहीं हैं। इसके बाद भोपाल में उन्होंने अपने आजमगढ़ दौरे का स्पष्टीकरण देते हुए कहा कि आजमगढ़ के कई मुस्लिम युवाओं पर चार राज्यों में पचास से अधिक मामले लादे गए हैं और इसीलिए उन्हें लगता है कि इनके निपटारे के लिए विशेष न्यायालय व सीबीआई की मदद लेनी चाहिए और उन्हें जबरन फंसाने के लिए झूठे प्रकरण नहीं लादने चाहिए। यह कैसी मानसिकता है?

पिछले दिनों पुलिस के हत्थे चढ़े शाहजाद अहमद पर दिल्ली के सीरियल बम ब्लास्ट के साथ बटला मुठभेड़ में शामिल होने का आरोप है। पूछताछ में उसने मारे गए युवाओं को अपना साथी बताया है। फिर इसके एक दिन बाद दिग्विजय उन मृतकों के परिजनों से मिलने क्यों गए? जाच एजेंसियों पर सवाल खड़ा करने वाले कठमुल्लों से मिलकर देश की कानून-व्यवस्था को लाछित क्यों किया? आजमगढ़ के कट्टरपंथी मुसलमानों को 'राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग' और उच्च न्यायालय द्वारा की गई जाच पर भरोसा नहीं है तो अब मुठभेड़ की जाच किससे कराई जाए?

वस्तुत: आतंकवाद को लेकर काग्रेस का दोहरापन छिपा नहीं है। बटला हाउस मुठभेड़ में दो पुलिस कर्मियों की भी मौत हुई थी। अपने जवानों की शहादत को अपमानित करते हुए काग्रेस के कुछ नेता मुठभेड़ के फौरन बाद बटला हाउस पहुंचे थे, जहा मुस्लिम वोट बैंक की खातिरदारी में मुलायम सिंह यादव सरीखे नेता पहले से ही विराजमान थे। सत्तासीन काग्रेस ने अपने नेताओं को आतंकवादियों का साथ देने वाले कट्टरपंथी तत्वों से दूरी बनाने का निर्देश देने की बजाए सुरक्षाकर्मियों पर सवाल खड़ा किया, जिन्होंने सभ्य समाज को लहूलुहान करने वाले दहशतगदरें को गिरफ्तार करने के लिए अपनी जान दाव पर लगा दी थी। सुरक्षाकर्मियों द्वारा मुस्लिम समाज के उत्पीड़न का आरोप समझ से परे है। न तो पुलिस और न ही सरकार ने आतंकवाद को लेकर मुस्लिम समुदाय को कठघरे में खड़ा किया है। आजमगढ़ के मुसलमानों के लिए यदि यह देश सर्वोपरि है तो उन्हें अपने समुदाय में छिपे उन भेड़ियों की तलाश करनी चाहिए, जो दहशतगदरें को पनाह देते हैं। मुंबई पर इतना बड़ा आतंकी हमला हुआ, क्या वह सीमा पार कर अचानक घुस आए जिहादियों के द्वारा संभव था? मुस्लिम समुदाय के कट्टरपंथियों द्वारा ऐसे मददगारों को संरक्षण क्यों मिलता है? और ऐसे कट्टरपंथियों के समर्थन में पूरा समाज किस जुनून में आ खड़ा होता है? आतंकवाद के सिलसिले में जिन युवकों की गिरफ्तारी हुई है, उन पर इस देश के संविधान के अनुरूप कानूनी कार्रवाई चल रही है। हाल में कोलकाता स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमला करने वालों को लंबी सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने दंडित किया है। वषरें की सुनवाई के बाद सन 1993 में मुंबई में बम विस्फोट करने वालों में से कुछ को अब सजा सुनाई गई है, कई रिहा कर दिए गए। इस देश की कानून-व्यवस्था की निष्पक्षता का इससे बड़ा प्रमाण और क्या होगा कि मुंबई हमलों में जिंदा पकड़ा गया अजमल कसाब सरकारी मेहमान बना हुआ है। उसके खिलाफ वीडियो फुटेज हैं, चश्मदीद गवाह हैं, किंतु सुनवाई चल रही है। ऐसे में मुस्लिम प्रताड़ना का आरोप समझ से परे है।

मुस्लिम कट्टरपंथियों के साथ काग्रेस का याराना नया नहीं है। शाहबानो प्रकरण इसका ज्वलंत प्रमाण है। सच्चर और रंगनाथ आयोग के बहाने मुसलमानों की दयनीय दशा के एकमात्र उद्धारक होने का ढोंग करने वाली काग्रेस ही वस्तुत: उनके पिछड़ेपन का कसूरवार भी है। करीब साठ सालों तक देश पर काग्रेस का शासन रहा है। यह समुदाय पिछड़ा ही बना रहा। वही काग्रेस अब उनके उत्थान के लिए अलग से आरक्षण देने का झासा दे रही है। काग्रेस के लिए मुस्लिम समुदाय एक वोट बैंक से अधिक नहीं है और यह बात जागरूक मुसलमानों की समझ में आने लगी है।

[बलबीर पुंज: लेखक भाजपा के राज्यसभा सासद हैं]
साभार दैनिक जागरण

Monday, January 4, 2010

केंद्र सरकार की मज़बूरी

नक्सलियों से निपटने की रणनीति में बदलाव समय की मांग हो सकती है, लेकिन यह शुभ संकेत नहीं कि पश्चिम बंगाल और झारखंड की नई सरकार का रवैया केंद्र से मेल नहीं खा रहा। नक्सलियों से चाहे जैसे निपटा जाए, लेकिन केंद्र और नक्सलवाद प्रभावित राज्यों में तालमेल होना प्राथमिक आवश्यकता है। यह निराशाजनक है कि नक्सलवाद का मुकाबला करने के तमाम वायदों और तैयारियों के बावजूद केंद्र और राज्य सरकारों के बीच आवश्यक तालमेल कायम होता नजर नहीं आ रहा। नि:संदेह इसका लाभ नक्सली संगठन उठा रहे हैं। उन्होंने न केवल आपस में बेहतर संपर्क स्थापित कर लिए हैं, बल्कि खुद को आधुनिक हथियारों से भी लैस कर लिया है। यही कारण है कि वे पुलिस और सुरक्षा बलों पर हमले करने और जनजीवन को बाधित करने में सक्षम हो गए हैं। झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में तो वे जब चाहते हैं तब आसानी से बंद आयोजित करने में सफल हो जाते हैं। यह समझ पाना कठिन है कि जब केंद्र सरकार को उनके खिलाफ कोई सीधी कार्रवाई नहीं करनी थी तो फिर ऐसा माहौल क्यों बनाया गया कि उनसे दो-दो हाथ किए जाएंगे? यह विस्मृत नहीं किया जा सकता कि नक्सलियों के खिलाफ सैन्य बलों और यहां तक कि वायुसेना के इस्तेमाल को लेकर भी व्यापक चर्चा छिड़ी। अब यह कहा जा रहा है कि नक्सलियों को निशाना बनाने के बजाय उनकी घेरेबंदी की जाएगी और उन तक हथियारों एवं अन्य सामग्री की आपूर्ति को रोका जाएगा। यह जानना कठिन है कि इसके पहले इस पर विचार क्यों नहीं किया गया कि नक्सलियों को हथियारों की आपूर्ति रोकने की जरूरत है? पिछले कुछ वर्षो में नक्सलियों ने जैसे आधुनिक हथियार एवं विस्फोटक पदार्थ जुटा लिए हैं उससे यही प्रतीत होता है कि इसके पहले उनकी सप्लाई लाइन को बाधित करने पर विचार ही नहीं किया गया। देखना यह है कि अब ऐसा करने में सफलता मिलती है या नहीं? निश्चित रूप से केवल इतने से ही नक्सलियों के मनोबल को तोड़ना कठिन है, क्योंकि अब वे इतने अधिक दुस्साहसी हो गए हैं कि हथियारों के लिए पुलिस थानों पर भी हमला करने में संकोच नहीं कर रहे हैं। पुलिस थानों और सुरक्षा बलों के ठिकानों पर नक्सलियों के हमले यह भी बताते हैं कि किस तरह पुलिस को आवश्यक संसाधनों से लैस करने में अनावश्यक देरी की गई। यह निराशाजनक है कि इस मोर्चे पर राज्य सरकारें अभी भी तत्पर नजर नहीं आतीं। यह एक तथ्य है कि पुलिस सुधारों के मामले में राज्य सरकारों का रवैया ढुलमुल ही अधिक है। यह विचित्र है कि राज्य सरकारें पुलिस सुधारों के मामले में न तो उच्चतम न्यायालय के निर्देशों पर अमल करने के लिए आगे बढ़ रही हैं और न ही सुरक्षा विशेषज्ञों के सुझावों पर। आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे के रूप में रेखांकित किए जा रहे नक्सलवाद का मुकाबला करने के मामले में सबसे अधिक निराशाजनक यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच इस पर कोई आम सहमति कायम नहीं हो पा रही है कि नक्सलियों को सही रास्ते पर कैसे लाया जा सकता है?
साभार दैनिक जागरण